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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 304
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5
इ꣣मा꣡ उ꣢ वां꣣ दि꣡वि꣢ष्टय उ꣣स्रा꣡ ह꣢वन्ते अश्विना । अ꣣यं꣡ वा꣢म꣣ह्वे꣡ऽव꣢से शचीवसू꣣ वि꣡शं꣢ विश꣣ꣳ हि꣡ गच्छ꣢꣯थः ॥३०४
स्वर सहित पद पाठइ꣣माः꣢ । उ꣣ । वाम् । दि꣡वि꣢꣯ष्टयः । उ꣣स्रा꣢ । उ꣣ । स्रा꣢ । ह꣣वन्ते । अश्विना । अय꣢म् । वा꣣म् । अह्वे । अ꣡व꣢꣯से । श꣣चीवसू । शची । वसूइ꣡ति꣢ । वि꣡शं꣢꣯विशम् । वि꣡श꣢꣯म् । वि꣣शम् । हि꣢ । ग꣡च्छ꣢꣯थः ॥३०४॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा उ वां दिविष्टय उस्रा हवन्ते अश्विना । अयं वामह्वेऽवसे शचीवसू विशं विशꣳ हि गच्छथः ॥३०४
स्वर रहित पद पाठ
इमाः । उ । वाम् । दिविष्टयः । उस्रा । उ । स्रा । हवन्ते । अश्विना । अयम् । वाम् । अह्वे । अवसे । शचीवसू । शची । वसूइति । विशंविशम् । विशम् । विशम् । हि । गच्छथः ॥३०४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 304
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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पदार्थ -
(उस्रा-अश्विना) हे इन्द्र ऐश्वर्यवन् परमात्मा के बसाने वाले व्यापनशील ज्ञानप्रकाश और आनन्दरस (वाम्) तुम दोनों को (इमाः-दिविष्टयः) ये दिव्य—अमृत मोक्ष को चाहने वाली प्रजाएँ—उपासक जन (हवन्ते) बुलाते हैं—आकर्षित करते हैं (वाम्) जैसे तुम दोनों को (अवसे) रक्षार्थ (अयम्-अह्वे) यह मैं बुलाता हूँ—आकर्षित करता हूँ वैसे तुम (शचीवसू) प्रज्ञा से वसने वाले (विशं विशं हि गच्छथः) प्रत्येक मनुष्य ही को प्राप्त होते हो।
भावार्थ - हे वसाने वाले परमात्मा के ज्ञानप्रकाश और आनन्दरस धर्मों तुम्हें मोक्ष को चाहने वाले मुमुक्षु उपासक जन अवश्य अपने अन्दर आमन्त्रित करते हैं—आकर्षित करते हैं, सो यह मैं भी अपनी रक्षार्थ तुम्हें आमन्त्रित करता हूँ, वैसे तुम प्रज्ञा से वसने वाले होकर प्रत्येक मनुष्य को प्राप्त होते हो प्रज्ञावान् मनुष्य तुम्हें अपने अन्दर अवश्य धारण करता है॥२॥
विशेष - ऋषिः—वसिष्ठ (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥ देवताः—‘अश्विनौ’ इन्द्रसम्बद्धौ (परमात्मा के प्रकाश और आनन्द गुणस्वरूप)॥<br>
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