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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 309
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣भी꣢ष꣣त꣢꣫स्तदा भ꣣रे꣢न्द्र꣣ ज्या꣢यः꣣ क꣡नी꣢यसः । पु꣣रूव꣢सु꣣र्हि꣡ म꣢घवन्ब꣣भू꣡वि꣢थ꣣ भ꣡रे꣢भरे च꣣ ह꣡व्यः꣢ ॥३०९॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भि꣢ । स꣣तः꣢ । तत् । आ । भ꣣र । इ꣡न्द्र꣢꣯ । ज्या꣡यः꣢꣯ । क꣡नी꣢꣯यसः । पु꣣रूव꣡सुः꣢ । पु꣣रु । व꣡सुः꣢꣯ । हि । म꣣घवन् । बभू꣡वि꣢थ । भ꣡रे꣢꣯भरे । भ꣡रे꣢꣯ । भ꣣रे । च । ह꣡व्यः꣢꣯ ॥३०९॥


स्वर रहित मन्त्र

अभीषतस्तदा भरेन्द्र ज्यायः कनीयसः । पुरूवसुर्हि मघवन्बभूविथ भरेभरे च हव्यः ॥३०९॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । सतः । तत् । आ । भर । इन्द्र । ज्यायः । कनीयसः । पुरूवसुः । पुरु । वसुः । हि । मघवन् । बभूविथ । भरेभरे । भरे । भरे । च । हव्यः ॥३०९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 309
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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पदार्थ -
(ज्यायः-इन्द्र) हे मेरे ज्येष्ठ श्रेष्ठ—बड़े भ्राता परमात्मन्! “स नो बन्धुर्जनिता” [यजु॰ ३२.१०] (कनीयसः सतः) मुझ छोटे भ्राता सदाचारी होते हुए के (तत्) उस दातव्य मोक्षधन को (अभि-आभर) मेरी ओर आभरित कर—निःसङ्कोच मुझे देदे (मघवन्) हे प्रशंसनीय धनवाले! (पुरूवसुः-हि) तू बहुत धनवाला है ही—धन की कमी तेरे पास नहीं (च) और (भरे भरे हव्यः-बभूविथ) संसार में भी प्रत्येक भरण अवसर पर—जब-जब मैं भरणीय होऊँ किसी भी प्रकार ह्रास में होऊँ तब तू मेरा देने वाला हो “हव्यः कर्तरि यत्-कृत्यल्युटो बहुलम्” [अष्टा॰ ३.३.११३]।

भावार्थ - परमात्मन्! तेरा मेरा भ्रातृसम्बन्ध भी है तू मेरा बड़ा भ्राता है छोटा भ्राता बड़े भ्राता का भरणीय होता है और मैं तो सदाचारी तेरा अनुवर्ती हूँ अतः मुझ छोटे भ्राता के देने योग्य मोक्षधन मेरे अन्दर आभरित कर—मुझे उदारता से दे दे, हे प्रशंसनीय धन देने वाले परमात्मन् तू तो बहुत धन वाला है अतः संसार में भी भरणीय पोषण योग्य ह्रास प्रसङ्ग में तू मुझे देने वाला बना रहे॥७॥

विशेष - ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥<br>

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