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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 313
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣡सा꣢वि दे꣣वं꣡ गोऋ꣢꣯जीक꣣म꣢न्धो꣣꣬ न्य꣢꣯स्मि꣢न्नि꣡न्द्रो꣢ ज꣣नु꣡षे꣢मुवोच । बो꣡धा꣢मसि त्वा हर्यश्व यज्ञै꣣र्बो꣡धा꣢꣯ न꣣ स्तो꣢म꣣म꣡न्ध꣢सो꣣ म꣡दे꣢षु ॥३१३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡सा꣢꣯वि । दे꣣व꣢म् । गो꣡ऋजी꣢꣯कम् । गो । ऋ꣣जीकम् । अ꣡न्धः꣢꣯ । नि । अ꣣स्मिन् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । ज꣣नु꣡षा꣢ । ई꣣म् । उवोच । बो꣡धा꣢꣯मसि । त्वा꣣ । हर्यश्व । हरि । अश्व । यज्ञैः꣢ । बो꣡ध꣢꣯ । नः꣣ । स्तो꣡म꣢꣯म् । अ꣡न्ध꣢꣯सः । म꣡दे꣢꣯षु ॥३१३॥
स्वर रहित मन्त्र
असावि देवं गोऋजीकमन्धो न्यस्मिन्निन्द्रो जनुषेमुवोच । बोधामसि त्वा हर्यश्व यज्ञैर्बोधा न स्तोममन्धसो मदेषु ॥३१३॥
स्वर रहित पद पाठ
असावि । देवम् । गोऋजीकम् । गो । ऋजीकम् । अन्धः । नि । अस्मिन् । इन्द्रः । जनुषा । ईम् । उवोच । बोधामसि । त्वा । हर्यश्व । हरि । अश्व । यज्ञैः । बोध । नः । स्तोमम् । अन्धसः । मदेषु ॥३१३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 313
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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पदार्थ -
(गोऋजीकं देवम्-अन्धः-असावि) वाणी से—स्तुति से ऋजुरूप “ऋज् धातोः—ईकक् प्रत्यय औणादिकः” दिव्य आध्यानीय उपासनारस निष्पन्न को (ईम्-इन्द्रः-अस्मिन् जनुषा नि-उवोच) यह परमात्मा यहाँ स्वभावतः या निष्पन्न उपासनारस के साथ ही निरन्तर समवेत होता है “उच समवाये” [दिवादि॰] यह हम जानते हैं अतः (हर्यश्व) हे ऋक् और साम—स्तुति और उपासना द्वारा प्राप्ति के साधन वाले परमात्मन्! (यज्ञैः-त्वा बोधामसि) अध्यात्म यज्ञों से तुझे हम अपनी ओर बोधित—सम्बोधित करते हैं, अतः (अन्धसः-मदेषु) आध्यानीय—समन्तात् ध्यान के हर्षों के निमित्तों में (नः-स्तोमं बोध) हमारे स्तुतिवचन को जान-जानकर अपनी कृपा से हमारा कल्याण कर।
भावार्थ - परमात्मन्! हम तेरे लिये स्तुति वाणी से मिश्रित—सहित उपासनारस जब तैयार करते हैं तू इसमें स्वभावतः या इसके तैयार होने के साथ ही समवेत हो संयुक्त होता है स्तवन उपासना से प्राप्त होने वाले परमात्मन् तुझे अध्यात्म यज्ञों से सम्बोधित करते हैं बुलाते हैं हमारे ध्यान प्रसङ्ग के हर्ष आनन्दों के निमित्तों में हमारे द्वारा स्तुतिवचन को जान—हमारा कल्याण करना भी तेरा स्वभाव है॥१॥
विशेष - ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>
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