Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 338
ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
3

इ꣡न्द्रा꣢पर्वता बृह꣣ता꣡ रथे꣢꣯न वा꣣मी꣢꣫रिष꣣ आ꣡ व꣢हतꣳ सु꣣वी꣡राः꣢ । वी꣣त꣢ꣳ ह꣣व्या꣡न्य꣢ध्व꣣रे꣡षु꣢ देवा꣣ व꣡र्धे꣢थां गी꣣र्भी꣡रिड꣢꣯या꣣ म꣡द꣢न्ता ॥३३८॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रा꣢꣯पर्वता । बृ꣣हता꣢ । र꣡थे꣢꣯न । वा꣣मीः꣢ । इ꣡षः꣢ । आ । व꣣हतम् । सुवी꣡राः꣢ । सु꣣ । वी꣡राः꣢꣯ । वी꣣त꣢म् । ह꣣व्या꣡नि꣢ । अ꣣ध्वरे꣡षु꣢ । दे꣣वा । व꣡र्धे꣢꣯थाम् । गी꣣र्भिः꣢ । इ꣡ड꣢꣯या । म꣡द꣢꣯न्ता ॥३३८॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रापर्वता बृहता रथेन वामीरिष आ वहतꣳ सुवीराः । वीतꣳ हव्यान्यध्वरेषु देवा वर्धेथां गीर्भीरिडया मदन्ता ॥३३८॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रापर्वता । बृहता । रथेन । वामीः । इषः । आ । वहतम् । सुवीराः । सु । वीराः । वीतम् । हव्यानि । अध्वरेषु । देवा । वर्धेथाम् । गीर्भिः । इडया । मदन्ता ॥३३८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 338
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
Acknowledgment

पदार्थ -
(इन्द्रपर्वता) “इन्द्रापर्वतौ” हे ऐश्वर्यवन् एवं उत्पादनाश धर्मी संसार स्वामी उभय स्वरूप परमात्मन्! (बृहता रथेन) महान् यज्ञरथ—अध्यात्मयज्ञरूप रथ के द्वारा “यज्ञो वाव देवरथः” [जै॰ १.१२९-१३०] (सुवीराः) सुपुष्ट (वामीः) वननीय—श्रेष्ठ (इषः) कमनीय उपासनाओं को (आवहतम्) समन्तरूप से प्राप्त करो, (अध्वरेषु) नाना अध्यात्मयज्ञों में (हव्यानि) अध्यात्मयज्ञों में भिन्न-भिन्न भावनाभेटों को (वीतम्) व्याप्त हो—प्राप्त होओ (गीर्भिः) प्रार्थना वचनों से (इडया) श्रद्धा से “श्रद्धा वा इडा” [श॰ ११.२.७.२०] (मदन्ता) हर्षित होते हुए (देवाः) हे देवो! (वर्धेथाम्) ‘वर्धयेथाम्’ “अन्तर्गतणिजर्थः” हमें बढ़ाओ।

भावार्थ - परमात्मा ऐश्वर्यवान् एवं उत्पादकपालकधर्मवान् है वह महान् अध्यात्मयज्ञ के द्वारा सुपुष्ट श्रेष्ठ कमनीय उपासनाओं को भली प्रकार प्राप्त करता है नाना अध्यात्मयज्ञों में भिन्न-भिन्न भावना भेटों को व्याप्त प्राप्त होता है, प्रार्थना वचनों और श्रद्धा से प्रसन्न होते हुए हमें बढ़ाता है॥७॥

विशेष - ऋषिः—विश्वामित्रः (सबका मित्र सब जिसके मित्र हैं)॥ देवता—इन्द्रपर्वतौ (ऐश्वर्यवान् परमात्मा और उसका पर्ववान् स्थान)॥<br>

इस भाष्य को एडिट करें
Top