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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 373
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
14
इ꣣मे꣡ त꣢ इन्द्र꣣ ते꣢ व꣣यं꣡ पु꣢रुष्टुत꣣ ये꣢ त्वा꣣र꣢भ्य꣣ च꣡रा꣢मसि प्रभूवसो । न꣢꣫ हि त्वद꣣न्यो꣡ गि꣢र्वणो꣣ गि꣢रः꣣ स꣡घ꣢त्क्षो꣣णी꣡रि꣢व꣣ प्र꣢ति꣣ त꣡द्ध꣢र्य नो꣣ व꣡चः꣢ ॥३७३॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣मे꣢ । ते꣣ । इन्द्र । ते꣢ । व꣣य꣢म् । पु꣣रुष्टुत । पुरु । स्तुत । ये꣢ । त्वा꣣ । आर꣡भ्य꣢ । आ꣣ । र꣡भ्य꣢꣯ । च꣡रा꣢꣯मसि । प्र꣣भूवसो । प्रभु । वसो । न꣢ । हि । त्वत् । अ꣣न्यः । अ꣣न् । यः꣢ । गि꣣र्वणः । गिः । वनः । गि꣡रः꣢꣯ । स꣡घ꣢꣯त् । क्षो꣣णीः꣢ । इ꣣व । प्र꣡ति꣢꣯ । तत् । ह꣣र्यः । नः । व꣡चः꣢꣯ ॥३७३॥
स्वर रहित मन्त्र
इमे त इन्द्र ते वयं पुरुष्टुत ये त्वारभ्य चरामसि प्रभूवसो । न हि त्वदन्यो गिर्वणो गिरः सघत्क्षोणीरिव प्रति तद्धर्य नो वचः ॥३७३॥
स्वर रहित पद पाठ
इमे । ते । इन्द्र । ते । वयम् । पुरुष्टुत । पुरु । स्तुत । ये । त्वा । आरभ्य । आ । रभ्य । चरामसि । प्रभूवसो । प्रभु । वसो । न । हि । त्वत् । अन्यः । अन् । यः । गिर्वणः । गिः । वनः । गिरः । सघत् । क्षोणीः । इव । प्रति । तत् । हर्यः । नः । वचः ॥३७३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 373
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(प्रभूवसो) हे बहुत धन वाले (पुरुष्टुत-इन्द्र) बहुत प्रकार से स्तुत्य परमात्मन्! (इमे) ये वे (ये वयं ते) जो हम तेरे उपासक (त्वा-आरभ्य चरामसि) तुझे आरम्भ कर—तेरा आश्रय लेकर जीवनयात्रा करते हैं (गिर्वणः) हे स्तुतियों से वननीय—सेवनीय परमात्मन्! (त्वत्-अन्यः) तुझसे भिन्न (गिरः) हमारी प्रार्थनाओं को (न हि सघत्) नहीं व्याप्त होता है—“षघ अत्र व्याप्त्यर्थश्छान्दसः” (क्षोणिः-इव नः-तत्-वचः-प्रतिहर्य) पृथिवी के समान हमारे उस प्रार्थनावचन को चाह—स्वीकार कर, “क्षोणिः पृथिवीनाम” [निघं॰ १.१] “हर्यति कान्तिकर्मा” [निघं॰ २.६]।
भावार्थ - हे बहुत प्रकार से स्तुति करने योग्य और बहुत धन वाले परमात्मन्! ये हम तेरे उपासक तुझे अपना आश्रय बनाकर जीवनयात्रा करते हैं हे स्तुतियों से सेवन करने योग्य तुझसे भिन्न कोई नहीं जो हमारी प्रार्थनाओं को प्राप्त हो सके, उन पर ध्यान दे सके, तू हमारे वचनों को पृथिवी की भाँति चाहता है जैसे पृथिवी अपने आश्रित पदार्थों को त्यागती नहीं है, निमित्त से अलग हुओं को अपना आश्रय देती है, ऐसे तू भी अपने आश्रित हम उपासकों को नहीं त्यागता है॥४॥
विशेष - ऋषिः—सव्य आङ्गिरसः (प्राणविद्यावेत्ता—प्राणायामाभ्यासियों में श्रेष्ठ उपासक)॥<br>
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