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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 379
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - महापङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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उ꣣भे꣡ यदि꣢꣯न्द्र रो꣡द꣢सी आप꣣प्रा꣢थो꣣षा꣡ इ꣢व । म꣣हा꣡न्तं꣢ त्वा म꣣ही꣡ना꣢ꣳ स꣣म्रा꣡जं꣢ चर्षणी꣣ना꣢म् । दे꣣वी꣡ जनि꣢꣯त्र्यजीजनद्भ꣣द्रा꣡ जनि꣢꣯त्र्यजीजनत् ॥३७९॥
स्वर सहित पद पाठउ꣣भे꣡इति꣢ । यत् । इ꣣न्द्र । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । आ꣣पप्रा꣡थ꣢ । आ꣣ । पप्रा꣡थ꣢ । उ꣣षाः꣢ । इ꣣व । महा꣡न्त꣢म् । त्वा꣣ । मही꣡ना꣢म् । स꣣म्रा꣡ज꣢म् । स꣣म् । रा꣡ज꣢꣯म् । च꣣र्षणीना꣢म् । दे꣣वी꣢ । ज꣡नि꣢꣯त्री । अ꣣जीजनत् । भद्रा꣢ । ज꣡नि꣢꣯त्री । अ꣣जीजनत् ॥३७९॥
स्वर रहित मन्त्र
उभे यदिन्द्र रोदसी आपप्राथोषा इव । महान्तं त्वा महीनाꣳ सम्राजं चर्षणीनाम् । देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥३७९॥
स्वर रहित पद पाठ
उभेइति । यत् । इन्द्र । रोदसीइति । आपप्राथ । आ । पप्राथ । उषाः । इव । महान्तम् । त्वा । महीनाम् । सम्राजम् । सम् । राजम् । चर्षणीनाम् । देवी । जनित्री । अजीजनत् । भद्रा । जनित्री । अजीजनत् ॥३७९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 379
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (यद्) जब तू (उभे रोदसी) ऊपर नीचे के दोनों द्युमण्डल और भूमण्डल को (आपप्राथ) अपनी उषा—ज्योति से पूरण करता है भरता है तब ऐसा लगता है (उषाः-इव) तेरी ज्योति ‘इव’ ‘अत्र पदपूरणः’ “परोक्षप्रिया इव हि देवाः” [गो॰ १.२.२१] “इवोऽपि दृश्यते पदपूरणः” [निरु॰ १.११] (त्वा महीनां महान्तम्) तुझ महान् से महान् को (भद्रा देवी) यह कल्याणकारिणी देवी (जनित्री) प्रकाश करने वाली बनी हुई (चर्षणीनां सम्राजम्) मनुष्यों में सम्यक् राजमान को (अजीजनत्) प्रादुर्भूत कर रही है प्रदर्शित कर रही है (जनित्री-अजीजनत्) हाँ, प्रादुर्भूत करने वाली प्रादुर्भूत कर रही है—प्रदर्शित कर रही है।
भावार्थ - परमात्मन्! जब तू अपनी ज्योति से ऊपर नीचे के दोनों द्युमण्डल और भूमण्डल को भरपूर कर देता है तो वह कल्याणकारिणी देवी मनुष्यों के अन्दर महान् से महान् सम्राट्—संसार में सम्यक् राजमानरूप में तुझे प्रकट—प्रदर्शित करने वाली प्रदर्शित कर देती है अतः हम उपासक विश्व में व्याप्त तेरी ज्योति को अनुभव करें॥१०॥
विशेष - ऋषिः—मेधातिथिः (मेधा से परमात्मा में अतन प्रवेश करने वाला)॥ छन्दः—महापंक्तिः॥<br>
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