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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 399
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - इन्द्रः
छन्दः - ककुप्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
2
अ꣣भ्रातृव्यो꣢ अ꣣ना꣡ त्वमना꣢꣯पिरिन्द्र ज꣣नु꣡षा꣢ स꣣ना꣡द꣢सि । यु꣣धे꣡दा꣢पि꣣त्व꣡मि꣢च्छसे ॥३९९॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भ्रातृव्यः꣢ । अ꣣ । भ्रातृव्यः꣢ । अ꣣ना꣢ । त्वम् । अ꣡ना꣢꣯पिः । अन् । आ꣣पिः । इन्द्र । जनु꣡षा꣢ । स꣣ना꣡त् । अ꣣सि । युधा꣢ । इत् । आ꣣पित्व꣢म् । इ꣣च्छसे ॥३९९॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्रातृव्यो अना त्वमनापिरिन्द्र जनुषा सनादसि । युधेदापित्वमिच्छसे ॥३९९॥
स्वर रहित पद पाठ
अभ्रातृव्यः । अ । भ्रातृव्यः । अना । त्वम् । अनापिः । अन् । आपिः । इन्द्र । जनुषा । सनात् । असि । युधा । इत् । आपित्वम् । इच्छसे ॥३९९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 399
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (त्वम्) तू (अभ्रातृव्यः) शत्रु-रहित (अना) नेता से रहित (अनापिः) माता-पिता आदि सम्बन्धी से रहित (जनुषा-सनात्-असि) जन्म से—जन्मदृष्टि से तू नित्य है अर्थात् जन्मधारण से भी रहित—नित्य है (युधा-इत्-आपित्वम्-इच्छसे) अपनी ओर गति करने वाले के साथ ही—उपासक के साथ ही “युध्यति गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] बन्धुत्व को चाहता है।
भावार्थ - परमात्मा का कोई शत्रु नहीं, वह किसीसे शत्रुता नहीं रखता, उसका नेता नहीं स्वयंकार्यविधाता है न उसका कोई सम्बन्धी है, जन्म से— जन्म का साथी हो ऐसा कहा जावे तो वह नित्य है शाश्वत है जन्म नहीं लेता हाँ, उसकी ओर गति करने वाले उपासक के साथ सम्बन्ध चाहता है उसे अपनाता है॥१॥
विशेष - ऋषिः—सौभरिः (परमात्मा को अपने अन्दर अच्छा भरने वाला)॥ छन्दः—ककुप्॥<br>
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