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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 408
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - इन्द्रः छन्दः - ककुप् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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व꣣य꣢मु꣣ त्वा꣡म꣢पूर्व्य स्थू꣣रं꣢꣫ न कच्चि꣣द्भ꣡र꣢न्तोऽव꣣स्य꣡वः꣢ । व꣡ज्रि꣢ञ्चि꣣त्र꣡ꣳ ह꣢वामहे ॥४०८॥

स्वर सहित पद पाठ

व꣣य꣢म् । उ꣣ । त्वा꣢म् । अ꣣पूर्व्य । अ । पूर्व्य । स्थूर꣢म् । न । कत् । चि꣣त् । भ꣡र꣢꣯न्तः । अ꣣वस्य꣡वः꣢ । व꣡ज्रि꣢꣯न् । चि꣣त्र꣢म् । ह꣣वामहे ॥४०८॥


स्वर रहित मन्त्र

वयमु त्वामपूर्व्य स्थूरं न कच्चिद्भरन्तोऽवस्यवः । वज्रिञ्चित्रꣳ हवामहे ॥४०८॥


स्वर रहित पद पाठ

वयम् । उ । त्वाम् । अपूर्व्य । अ । पूर्व्य । स्थूरम् । न । कत् । चित् । भरन्तः । अवस्यवः । वज्रिन् । चित्रम् । हवामहे ॥४०८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 408
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(अपूर्व्य वज्रिन्) पूर्व—पुरातनकाल में होने वाले श्रेष्ठों में भी श्रेष्ठ ओजस्विन् परमात्मन्! (कत्-चित्-स्थूरं न भरन्तः) किसी कुठले को यवादि अन्न से जैसे भरते हैं “तत् स्थूर् यवाचितम् स्थूरि भवति क्षेमस्य रूपम्” [जै॰ २.२०३] वैसे उपासना से भरते हुए (वयम्-अवस्यवः) हम रक्षा चाहने वाले (त्वां चित्रं हवामहे) तुझ चयनीय दर्शनीय को आमन्त्रित करते हैं।

भावार्थ - जैसे संसार में समय पर प्राणरक्षा चाहते हुए अथवा समय पर अन्न पाने के लिये यव आदि अन्न से किसी कुठले को भरते हैं, वैसे दर्शनीय सर्वश्रेष्ठ ओजस्वी परमात्मा को हम रक्षा चाहने वाले उपासक उपासना से भरते हुए अवसर पर रक्षा करने वाले को आमन्त्रित करते हैं, वह अवश्य रक्षा करेगा॥१०॥

विशेष - ऋषिः—सौभरिः (परमात्मा को अपने अन्दर भरित करने वाला उपासक)॥<br>

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