Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 446
ऋषिः - त्रसदस्युः देवता - इन्द्रः छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
4

प्र꣢ व꣣ इ꣡न्द्रा꣢य वृत्र꣣ह꣡न्त꣢माय꣣ वि꣡प्रा꣢य गा꣣थं꣡ गा꣢यत꣣ यं꣢ जु꣣जो꣡ष꣢ते ॥४४६॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । वः꣣ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । वृ꣣त्रह꣡न्त꣢माय । वृ꣣त्र । ह꣡न्त꣢꣯माय । वि꣡प्रा꣢꣯य । वि । प्रा꣣य । गाथ꣢म् । गा꣣यत । य꣢म् । जु꣣जो꣡ष꣢ते ॥४४६॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र व इन्द्राय वृत्रहन्तमाय विप्राय गाथं गायत यं जुजोषते ॥४४६॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । वः । इन्द्राय । वृत्रहन्तमाय । वृत्र । हन्तमाय । विप्राय । वि । प्राय । गाथम् । गायत । यम् । जुजोषते ॥४४६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 446
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
Acknowledgment

पदार्थ -
(वः) ‘यूयम्-विभक्तिव्यत्ययः’ हे मरुतो—मुमुक्षुजनो! तुम (वृत्रहन्तमाय) अत्यन्त पापनाशक—(विप्राय) प्रजापति—प्रजापालक—“प्रजापतिर्वै विप्रः” [श॰ ६.१.१.१६] (इन्द्राय) परमात्मा के लिये (गाथं प्रगायत) गान करने योग्य भजन कीर्तन स्तवन को भली प्रकार गाओ (यं जुजोषते) जिसको वह प्रसन्न—पसन्द करता है।

भावार्थ - मुमुक्षुजनों आत्मयाजी लोगों को अत्यन्त पापनाशक प्रजापालक परमात्मा के लिये गाने योग्य भजन कीर्तन स्तवन इस प्रकार करना चाहिए, जिससे वह परमात्मा प्रसन्न होता है॥१०॥

विशेष - ऋषिः—सम्पातः (परमात्मा से मेल करने वाला उपासक)॥<br>

इस भाष्य को एडिट करें
Top