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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 451
ऋषिः - संवर्त आङ्गिरसः देवता - उषाः छन्दः - द्विपदा विराट् स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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उ꣣षा꣢꣫ अप꣣ स्व꣢सु꣣ष्ट꣢मः꣣ सं꣡ व꣢र्त्तयति वर्त꣣नि꣡ꣳ सु꣢जा꣣त꣡ता꣢ ॥४५१

स्वर सहित पद पाठ

उ꣣षाः꣢ । अ꣡प꣢꣯ । स्व꣡सुः꣢꣯ । त꣡मः꣢꣯ । सम् । व꣣र्त्तयति । वर्त्तनि꣢म् । सु꣣जात꣡ता꣢ । सु꣣ । जात꣣ता꣢ ॥४५१॥१


स्वर रहित मन्त्र

उषा अप स्वसुष्टमः सं वर्त्तयति वर्तनिꣳ सुजातता ॥४५१


स्वर रहित पद पाठ

उषाः । अप । स्वसुः । तमः । सम् । वर्त्तयति । वर्त्तनिम् । सुजातता । सु । जातता ॥४५१॥१

सामवेद - मन्त्र संख्या : 451
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 11;
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पदार्थ -
(उषाः) कमनीय परमात्मज्योति “उषाः-वष्टेः कान्तिकर्मणः” [निरु॰ १२।७] (स्वसुः) सुगमतया आत्माओं को भोगों में भोग बन्धनों में फेंकने वाली प्रकृति के “स्वसा-सु असा स्वेषु सीदतीति वा” [निरु॰ ११.३२] (तमः-अपवर्तयति) अन्धकार—जड़भाव—मृत्युभाव को “तमो मृत्युः” [काठ॰ १०.६] दूर कर देती है—नष्ट कर देती है, पुनः उपासक आत्मा के अन्दर (सुजातता) सुजाततया—सुप्रसिद्धरूपता से (वर्तनिं संवर्तयति) अपने ज्योतिःस्वरूप की तरङ्ग को सञ्चालित कर देती है।

भावार्थ - परमात्मज्योति उपासक मुमुक्षुओं के अन्दर से भोगों या भोग-बन्धन में फेंकनेवाली प्रकृति के मृत्युरूप जड़भाव को नष्ट कर देती है और उनके अन्दर स्वप्रकाशतरङ्ग को सञ्चालित कर देती है॥५॥

विशेष - ऋषिः—संवर्तः (अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों के मेल से सेवन करने वाला उपासक)॥ देवताः—उषाः (परमात्मज्योतिः)॥ छन्दः—द्विपदा पंक्तिः॥<br>

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