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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 536
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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प्र꣡ हि꣢न्वा꣣नो꣡ ज꣢नि꣣ता꣡ रोद꣢꣯स्यो꣣ र꣢थो꣣ न꣡ वाज꣢꣯ꣳ सनि꣣ष꣡न्न꣢यासीत् । इ꣢न्द्रं꣣ ग꣢च्छ꣣न्ना꣡यु꣢धा स꣣ꣳशि꣡शा꣢नो꣣ वि꣢श्वा꣣ व꣢सु꣣ ह꣡स्त꣢योरा꣣द꣡धा꣢नः ॥५३६॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । हि꣣न्वानः꣢ । ज꣣निता꣢ । रो꣡द꣢꣯स्योः । र꣡थः꣢꣯ । न । वा꣡ज꣢꣯म् । स꣣निष꣢न् । अ꣣यासीत् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । ग꣡च्छ꣢꣯न् । आ꣡यु꣢꣯धा । सँ꣣शि꣡शा꣢नः । स꣣म् । शि꣡शा꣢꣯नः । वि꣡श्वा꣢꣯ । व꣡सु꣢꣯ । ह꣡स्त꣢꣯योः । आ꣣द꣡धा꣢नः । आ꣣ । द꣡धा꣢꣯नः ॥५३६॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र हिन्वानो जनिता रोदस्यो रथो न वाजꣳ सनिषन्नयासीत् । इन्द्रं गच्छन्नायुधा सꣳशिशानो विश्वा वसु हस्तयोरादधानः ॥५३६॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । हिन्वानः । जनिता । रोदस्योः । रथः । न । वाजम् । सनिषन् । अयासीत् । इन्द्रम् । गच्छन् । आयुधा । सँशिशानः । सम् । शिशानः । विश्वा । वसु । हस्तयोः । आदधानः । आ । दधानः ॥५३६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 536
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
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पदार्थ -
(प्रहिन्वानः) उपासक द्वारा प्रार्थना में आया हुआ सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा (रोदस्योः-जनिता) द्यावापृथिवीमय जगत् का उत्पादक (वाजं सनिषन्) उपासक के लिये अमृत अन्नभोग को देने की इच्छा के हेतु (रथः-न-अयासीत्) रथ की भाँति चलता-सा आता है (इन्द्रं गच्छन्) उपासक आत्मा के प्रति प्राप्त होता है (आयुधा संशिशानः) उपासक के योगाभ्यासरूप आयुधों—शस्त्रों को जिनसे काम आदि का शमन होता है उन्हें तीक्ष्ण करता हुआ (विश्वावसु) समस्त वसाने वाले साधनों को (हस्तयोः-आदधानः) मानो हँसाने-हर्षाने वाले दया और प्रसादरूप हाथों में लेकर प्राप्त होता है।

भावार्थ - द्युलोक से पृथिवीलोक तक समस्त जगत् का उत्पादक शान्तस्वरूप परमात्मा उपासक द्वारा प्रार्थित हुआ उसे अमृत अन्नभोग देने की इच्छा के हेतु, उससे भरे रथ की भाँति उपासक को प्राप्त होता है, काम-क्रोध नाशक उसके योगाभ्यास शस्त्रों को तीक्ष्ण करता हुआ तथा समस्त वसाने वाले साधनों को अपने दया और प्रसादरूप हाथों में लेकर प्राप्त होता है॥४॥

विशेष - ऋषिः—वसिष्ठ (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला)॥<br>

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