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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 54
ऋषिः - कण्वो घौरः
देवता - अग्निः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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नि꣡ त्वाम꣢꣯ग्ने꣣ म꣡नु꣢र्दधे꣣ ज्यो꣢ति꣣र्ज꣡ना꣢य꣣ श꣡श्व꣢ते । दी꣣दे꣢थ꣣ क꣡ण्व꣢ ऋ꣣त꣡जा꣢त उक्षि꣣तो꣡ यं न꣢꣯म꣣स्य꣡न्ति꣢ कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ ॥५४॥
स्वर सहित पद पाठनि꣢ । त्वाम् । अ꣣ग्ने । म꣡नुः꣢꣯ । द꣣धे । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । ज꣡ना꣢꣯य । श꣡श्व꣢꣯ते । दी꣣दे꣡थ꣢ । क꣡ण्वे꣢꣯ । ऋ꣣त꣡जा꣢तः । ऋ꣣त । जा꣣तः । उक्षितः꣢ । यम् । न꣣मस्य꣡न्ति꣢ । कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ ॥५४॥
स्वर रहित मन्त्र
नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते । दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टयः ॥५४॥
स्वर रहित पद पाठ
नि । त्वाम् । अग्ने । मनुः । दधे । ज्योतिः । जनाय । शश्वते । दीदेथ । कण्वे । ऋतजातः । ऋत । जातः । उक्षितः । यम् । नमस्यन्ति । कृष्टयः ॥५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 54
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
(अग्ने) हे परमात्मन्! (त्वां ज्योतिः) तुझ ज्योति को (शश्वते जनाय) शाश्वतिकजन—अमरजन मुक्त आत्मा हो जाने के लिये (मनुः-निदधे) मननशील उपासक अन्दर धारण करता है, (ऋतजातः-उक्षितः) ऋत-वेदज्ञान के श्रवण से प्रसिद्ध तथा ध्यान से सिक्त-निदिध्यासन से प्राप्त हुआ (कण्वे दीदेथ) मेधावी ध्यानी के अन्दर प्रकाशित हो जाता है (यं कृष्टयः-नमस्यन्ति) जिस परमात्मा को कर्मशील साधारणजन “कृष्टयः-मनुष्याः” [निघं॰ २.३] नमस्कार करते हैं बाहरी रीति से स्वीकार करते हैं।
भावार्थ - साधारणजन परमात्मा का श्रवण करके प्रत्येक कर्म के अनुष्ठान में उसे नमस्कारमात्र करके स्वीकार करते हैं। उनसे उत्कृष्टजन श्रवण के अनन्तर परमात्मा का मनन भी करते हैं। और ऊँचे अधिकारी उपासक श्रवण मनन के पश्चात् परमात्मा का निदिध्यासन भी करके परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं। “आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासरसेन च त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम्” [योग॰ १.४८ व्यास॰] आगम—श्रवण से, अनुमान—मनन से, ध्यानाभ्यासरस—निदिध्यासन से इन तीन स्थानों में प्रज्ञा को लगाकर साक्षात्कार प्राप्त करते हैं॥१०॥
विशेष - ऋषिः—कण्वः (मेधावी वक्ता प्रगतिशील उपासक)॥<br>
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