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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 542
ऋषिः - पराशरः शाक्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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म꣣ह꣡त्तत्सोमो꣢꣯ महि꣣ष꣡श्च꣢कारा꣣पां꣡ यद्गर्भोऽवृ꣢꣯णीत दे꣣वा꣢न् । अ꣡द꣢धा꣣दि꣢न्द्रे꣣ प꣡व꣢मान꣣ ओ꣡जोऽज꣢꣯नय꣣त्सू꣢र्ये꣣ ज्यो꣢ति꣣रि꣡न्दुः꣢ ॥५४२॥

स्वर सहित पद पाठ

म꣣ह꣢त् । तत् । सो꣡मः꣢꣯ । म꣣हिषः꣢ । च꣣कार । अ꣣पा꣢म् । यत् । ग꣡र्भः꣢꣯ । अ꣡वृ꣢꣯णीत । दे꣣वा꣢न् । अ꣡द꣢꣯धात् । इ꣡न्द्रे꣢꣯ । प꣡व꣢꣯मानः । ओ꣡जः꣢꣯ । अ꣡ज꣢꣯नयत् । सू꣡र्ये꣢꣯ । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । इ꣡न्दुः꣢꣯ ॥५४२॥


स्वर रहित मन्त्र

महत्तत्सोमो महिषश्चकारापां यद्गर्भोऽवृणीत देवान् । अदधादिन्द्रे पवमान ओजोऽजनयत्सूर्ये ज्योतिरिन्दुः ॥५४२॥


स्वर रहित पद पाठ

महत् । तत् । सोमः । महिषः । चकार । अपाम् । यत् । गर्भः । अवृणीत । देवान् । अदधात् । इन्द्रे । पवमानः । ओजः । अजनयत् । सूर्ये । ज्योतिः । इन्दुः ॥५४२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 542
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
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पदार्थ -
(महिषः सोम) महान् “महिषो महन्नाम” [निघं॰ ३.३] शान्तस्वरूप परमात्मा ने (तत्-महत्-चकार) उस महत्त्वपूर्ण कर्म को किया है (यत्-अपां गर्भः) जो व्यापनशील परमाणुओं का गर्भ—हिरण्यगर्भ या गर्भरूप समष्टि जगत् है—उसे व्यक्त किया (देवान्-अवृणीत) आरभ्भसृष्टि के आदि देवों—अग्नि आदि साङ्कल्पिक वैदिक ऋषियों को वेदज्ञान प्रदान कर वरा—अपनाया (पवमानः) उस आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले परमात्मा ने (इन्द्रे-ओजः-अदधात्) उपासक आत्मा के अन्दर आत्मबल—आत्मानुभूतिरूप ज्ञान को धरा—स्थापित किया (इन्दुः) शान्त दीप्तिमान् परमात्मा ने (सूर्ये ज्योतिः-अजनयत्) सूर्यपिण्ड में ज्योति को उत्पन्न किया।

भावार्थ - महान् शान्तस्वरूप अनन्त परमात्मा ने वह यह महत्त्वपूर्ण कार्य किया कि व्यापनशील परमाणुओं में हिरण्यगर्भ समष्टि जगत् जो अव्यक्त था उसे व्यक्त किया, पुनः आदि सृष्टि के अग्नि आदि वैदिक ऋषियों को वेदज्ञान का प्रकाश देकर अपनाया, आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले परमात्मा ने उपासक आत्मा के अन्दर आत्मबल—स्वात्मानुभूति को जागृत किया तथा सूर्यपिण्ड में ज्योति को उत्पन्न किया है॥१०॥

विशेष - ऋषिः—पराशरः शाक्त्यः (शक्तिसम्पन्न अत्यन्त पापनाशक उपासक)॥<br>

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