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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 574
ऋषिः - पर्वतनारदौ काण्वौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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गो꣡म꣢न्न इन्दो꣣ अ꣡श्व꣢वत्सु꣣तः꣡ सु꣢दक्ष धनिव । शु꣡चिं꣢ च꣣ व꣢र्ण꣣म꣢धि꣣ गो꣡षु꣢ धारय ॥५७४॥

स्वर सहित पद पाठ

गो꣡म꣢꣯त् । नः꣣ । इन्दो । अ꣡श्व꣢꣯वत् । सु꣣तः꣢ । सु꣣दक्ष । सु । दक्ष । धनिव । शु꣡चि꣢꣯म् । च꣣ । व꣡र्ण꣢꣯म् । अ꣡धि꣢꣯ । गो꣡षु꣢꣯ । धा꣣रय ॥५७४॥


स्वर रहित मन्त्र

गोमन्न इन्दो अश्ववत्सुतः सुदक्ष धनिव । शुचिं च वर्णमधि गोषु धारय ॥५७४॥


स्वर रहित पद पाठ

गोमत् । नः । इन्दो । अश्ववत् । सुतः । सुदक्ष । सु । दक्ष । धनिव । शुचिम् । च । वर्णम् । अधि । गोषु । धारय ॥५७४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 574
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 10;
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पदार्थ -
(सुदक्ष-इन्दो) हे शोभन बल वाले आनन्दरसभरे परमात्मन्! तू (सुतः) साक्षात् हुआ (नः) हमारी ओर (गोमत्) अपने ज्ञान वाले—ज्ञानस्वरूप को (अश्ववत्) व्यापन वाले—व्यापन धर्म को ‘अत्रोभयत्र धात्वर्थ एवेष्यते’ (धनिव) प्रेरित कर तथा (गोषु) स्तुतियों में (शुचिं वर्णम्) प्रकाशमान वरणीय आनन्दरूप को (धारय) धारण करा।

भावार्थ - प्रशस्त बलवान् आनन्दरसभरे परमात्मन्! तू साक्षात् हुआ अपने ज्ञानस्वरूप और व्यापनधर्म को हमारी ओर प्रेरित कर तथा हमारी स्तुतियों में अपने प्रकाशमान वरणीय आनन्द को भी वररूप में धारण करा, हमारी स्तुतियाँ रिक्त न जावें—रिक्त जाती नहीं किन्तु आनन्दवर लेकर अवश्य आती हैं॥९॥

विशेष - ऋषिः—पर्वतनारदावृषी (पर्ववान्—अत्यन्त तृप्तिमान् और नरविषयक ज्ञानदाता)॥<br>

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