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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 579
ऋषिः - ऊर्ध्वसद्मा आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - ककुप्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣣भि꣢ द्यु꣣म्नं꣢ बृ꣣ह꣢꣫द्यश꣣ इ꣡ष꣢स्पते दिदी꣣हि꣡ दे꣢व देव꣣यु꣢म् । वि꣡ कोशं꣢꣯ मध्य꣣मं꣡ यु꣢व ॥५७९॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣भि꣢ । द्यु꣣म्न꣢म् । बृ꣣ह꣢त् । य꣡शः꣢꣯ । इ꣡षः꣢꣯ । प꣣ते । दिदीहि꣢ । दे꣣व । देवयु꣢म् । वि । को꣡श꣢꣯म् । म꣣ध्यम꣢म् । यु꣣व ॥५७९॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि द्युम्नं बृहद्यश इषस्पते दिदीहि देव देवयुम् । वि कोशं मध्यमं युव ॥५७९॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । द्युम्नम् । बृहत् । यशः । इषः । पते । दिदीहि । देव । देवयुम् । वि । कोशम् । मध्यमम् । युव ॥५७९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 579
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 11;
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पदार्थ -
(इषस्पते देव) हे इच्छा कामना के पालक—कामनापूरक शान्तस्वरूप परमात्मदेव! तू (बृहत्-द्युम्नं यशः) ऊँचे—अनश्वर धन को “द्युम्नं धननाम” [निघं॰ २.१०] और ऊँचे—अनश्वर अन्न—अमृत अन्न मोक्षभोग को “यशः-अन्ननाम” [निघं॰.......] (देवयुवम्-अभि) तुझ देव की ओर चलने वाले के प्रति (दिदीहि) उपहार देदे—प्रसादरूप में देदे “दाञ् दाने” [जुहो॰] ‘छान्दसं रूपम्’ (मध्यमं कोशम्) भीतर वाले कोष्ठ अर्थात् शरीर और आत्मा के मध्य में वर्तमान अन्तःकरण या मन को (वियुव) विकसित कर—खोल।
भावार्थ - हे कामनापूरक परमात्मन्! तेरी ओर चलने वाले के प्रति तू अनश्वरधन—मौक्षैश्वर्य और अमृतभोग मोक्षानन्द प्रदान करता है तथा उसके मन को विकसित कर देता है॥२॥
विशेष - ऋषिः—ऊर्ध्वसद्मा (ऊँचे सदन—मोक्षधाम वाला मोक्षार्थी)॥<br>
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