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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 649
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - 0
3
प्र꣣भो꣢꣯ जन꣢꣯स्य वृत्रह꣣न्त्स꣡मर्ये꣢षु ब्रवावहै । शू꣢रो꣣ यो꣢꣫ गोषु꣣ ग꣡च्छ꣢ति꣣ स꣡खा꣢ सु꣣शे꣢वो꣣ अ꣡द्व꣢युः ॥६४९
स्वर सहित पद पाठप्र꣣भो꣢ । प्र꣣ । भो꣢ । ज꣡न꣢꣯स्य । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । स꣢म् । अ꣣र्ये꣡षु꣢ । ब्र꣣वावहै । शू꣡रः꣢꣯ । यः । गो꣡षु꣢꣯ । ग꣡च्छ꣢꣯ति । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । सुशे꣡वः꣢ । सु꣣ । शे꣡वः꣢꣯ । अ꣡द्व꣢꣯युः । अ । द्वयुः꣣ ॥६४९॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रभो जनस्य वृत्रहन्त्समर्येषु ब्रवावहै । शूरो यो गोषु गच्छति सखा सुशेवो अद्वयुः ॥६४९
स्वर रहित पद पाठ
प्रभो । प्र । भो । जनस्य । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । सम् । अर्येषु । ब्रवावहै । शूरः । यः । गोषु । गच्छति । सखा । स । खा । सुशेवः । सु । शेवः । अद्वयुः । अ । द्वयुः ॥६४९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 649
(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 9
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 9
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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पदार्थ -
(जनस्य-अर्येषु) जनवर्ग के स्वामियों राजाओं शासकों में “अर्यः स्वामिवैश्ययोः” [अष्टा॰ ३.१.१०३] (वृत्रहन् प्रभो) हे पापनाशक! “पाप्मा वै वृत्रः” [श॰ ११.१.५.७] प्रभु तू ही अर्य—राजा—शासक है सर्वथा स्वामिधर्म और पापविनाशन प्रवृत्ति तुझ में ही है, अतः (सम्ब्रवामहै) तेरी स्तुति करते हैं (यः) जो (शूरः) पराक्रमी (सखा) मित्र (सुशेवः) सुन्दर सुखदाता (अद्वयुः) अद्वितीय—अकेला (गोषु गच्छति) पृथिवी आदि लोकों में “इमे वै लोका गौः” [श॰ ६.१.२.३४] विभुगति से प्राप्त होता है।
भावार्थ - मनुष्यवर्ग के राजाओं—शासकों में पापनाशक प्रभु तेरा जैसा नहीं है। तू उन शासकों के भी पापों को अपने कृपा एवं दण्ड से नष्ट करता है, तू मित्र और यथार्थ सुखदाता है। पराक्रमी अद्वितीय अकेला समस्त पृथिवी आदि लोकों में विभुगति से प्राप्त हो शासन करता है। तेरी स्तुति हम करते रहें॥९॥
विशेष - <br>
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