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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 672
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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उ꣣च्चा꣡ ते꣢ जा꣣त꣡मन्ध꣢꣯सो दि꣣वि꣡ सद्भूम्या ददे꣢꣯ । उ꣣ग्र꣢꣫ꣳ शर्म꣣ म꣢हि꣣ श्र꣡वः꣢ ॥६७२॥

स्वर सहित पद पाठ

उ꣣च्चा꣢ । उ꣣त् । चा꣢ । ते꣣ । जात꣢म् । अ꣡न्ध꣢꣯सः । दि꣣वि꣢ । सत् । भू꣡मि꣢꣯ । आ । द꣣दे । उग्र꣢म् । श꣡र्म꣢꣯ । म꣡हि꣢꣯ । श्र꣡वः꣢꣯ ॥६७२॥


स्वर रहित मन्त्र

उच्चा ते जातमन्धसो दिवि सद्भूम्या ददे । उग्रꣳ शर्म महि श्रवः ॥६७२॥


स्वर रहित पद पाठ

उच्चा । उत् । चा । ते । जातम् । अन्धसः । दिवि । सत् । भूमि । आ । ददे । उग्रम् । शर्म । महि । श्रवः ॥६७२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 672
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(ते-अन्धसः) तुझ आध्यानीय—उपासनीय पवमान सोम—आनन्दधारा में आते हुए शान्त परमात्मा का (जातम्) प्रसिद्धरूप (उच्चा) ऊँचा—उत्कृष्ट है, जो (दिवि सत्) अमृत मोक्षधाम में होते हुए को “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३] (भूमि-आददे) भूमि—पृथिवी पर जन्मा हुआ पार्थिव शरीर में आया हुआ “ताद्धितेन कृत्स्नवन्निगमा भवन्ति” [निरु॰ २.५] “सुपां सुलुक्...” [अष्टा॰ ७.३.३९१] ‘सप्तम्याश्च लुक्’ मैं शरीरबन्धन से मुक्त हो मोक्षधाम में पहुँचकर ग्रहण करता हूँ प्राप्त कर लेता हूँ (उग्रं शर्म महि श्रवः) जोकि उच्च सुख बहुत प्रशंसनीय है।

भावार्थ - मोक्ष में परमात्मा का ऊँचा स्वरूप साक्षात् होनेवाला है उसकी आकांक्षा उपासक में होनी चाहिए, उपासक की प्रवृत्ति या रुचि पृथिवीलोक के भोगों में नहीं रहती वह तो ऊँचे सुख और प्रशंसनीय दर्शनामृत की चाह रखता है॥१॥

विशेष - ऋषिः—आङ्गिरसोऽमहीयुः (प्राणविद्यानिष्णात मोक्ष का इच्छुक)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥<br>

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