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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 754
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
4
यु꣣वं꣢ चि꣣त्रं꣡ द꣢दथु꣣र्भो꣡ज꣢नं नरा꣣ चो꣡दे꣢थाꣳ सू꣣नृ꣡ता꣢वते । अ꣣र्वा꣢꣫ग्रथ꣣ꣳ स꣡म꣢नसा꣣ नि꣡ य꣢च्छतं꣣ पि꣡ब꣢तꣳ सो꣣म्यं꣡ मधु꣢꣯ ॥७५४॥
स्वर सहित पद पाठयु꣣व꣢म् । चि꣣त्र꣢म् । द꣣दथुः । भो꣡ज꣢꣯नम् । न꣣रा । चो꣡दे꣢꣯थाम् । सू꣣नृ꣡ता꣢वते । सु꣣ । नृ꣡ता꣢꣯वते । अ꣡र्वा꣢क् । र꣡थ꣢꣯म् । स꣡म꣢꣯नसा । स । म꣣नसा । नि꣢ । य꣡च्छतम् । पि꣡ब꣢꣯तम् । सो꣣म्य꣢म् । म꣡धु꣢꣯ ॥७५४॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं चित्रं ददथुर्भोजनं नरा चोदेथाꣳ सूनृतावते । अर्वाग्रथꣳ समनसा नि यच्छतं पिबतꣳ सोम्यं मधु ॥७५४॥
स्वर रहित पद पाठ
युवम् । चित्रम् । ददथुः । भोजनम् । नरा । चोदेथाम् । सूनृतावते । सु । नृतावते । अर्वाक् । रथम् । समनसा । स । मनसा । नि । यच्छतम् । पिबतम् । सोम्यम् । मधु ॥७५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 754
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(नरा) हे अश्विनौ नरौ—हे व्यापनशील प्रकाशस्वरूप और आनन्दरसरूप परमात्मन्! (युवम्) तुम (सूनृतावते) स्तुतिवाणी वाले उपासक के लिए (चित्रं भोजनम्) चायनीय—ग्राह्य अद्भुत सुख भोग को (ददथुः) देते हो (चोदेथाम्) और उसे अपनी ओर प्रेरित करते हो (समनसा) समान मन से—समान भाव से (रथम्-अर्वाक्-नियच्छतम्) रमणीय सुख भोग को इधर इस लोक में नियत करते हो, और (सोम्यं मधु पिबतम्) शान्त मधुर उपासनारस को पान करो—स्वीकार करो अथवा स्व मधुर दर्शनरस उपासक को पिलावे।
भावार्थ - स्तुति करनेवाले उपासक के लिये ज्योतिस्वरूप आनन्द-रसरूप परमात्मा अद्भुत-श्रेष्ठ भोग कराता है अपनी ओर प्रेरित करता है, समान-भाव से रमणीय सुख को इस लोक में देता है अपने मधुर दर्शनामृत को पिलाता है॥२॥
विशेष - <br>
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