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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 77
ऋषिः - वत्सप्रिर्भालन्दनः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्र꣡ होता꣢꣯ जा꣣तो꣢ म꣣हा꣡न्न꣢भो꣣वि꣢न्नृ꣣ष꣡द्मा꣢ सीदद꣣पां꣡ वि꣢व꣣र्ते꣢ । द꣢ध꣣द्यो꣢ धा꣣यी꣢ सु꣣ते꣡ वया꣢꣯ꣳसि य꣣न्ता꣡ वसू꣢꣯नि विध꣣ते꣡ त꣢नू꣣पाः꣢ ॥७७॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । हो꣡ता꣢꣯ । जा꣣तः꣢ । म꣣हा꣢न् । न꣣भोवि꣢त् । न꣣भः । वि꣢त् । नृ꣣ष꣡द्मा꣢ । नृ꣣ । स꣡द्मा꣢꣯ । सी꣣दत् । अपा꣢म् । वि꣣वर्ते꣢ । वि꣣ । वर्त्ते꣢ । द꣡ध꣢꣯त् । यः । धा꣣यी꣢ । सु꣣ते꣢ । व꣡याँ꣢꣯सि । य꣣न्ता꣢ । व꣡सू꣢꣯नि । वि꣣धते꣢ । त꣣नूपाः꣢ । त꣣नू । पाः꣢ ॥७७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र होता जातो महान्नभोविन्नृषद्मा सीददपां विवर्ते । दधद्यो धायी सुते वयाꣳसि यन्ता वसूनि विधते तनूपाः ॥७७॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । होता । जातः । महान् । नभोवित् । नभः । वित् । नृषद्मा । नृ । सद्मा । सीदत् । अपाम् । विवर्ते । वि । वर्त्ते । दधत् । यः । धायी । सुते । वयाँसि । यन्ता । वसूनि । विधते । तनूपाः । तनू । पाः ॥७७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 77
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 8;
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पदार्थ -
(महान् होता जातः) महान् स्वीकारकर्ता—अपनाने वाला प्रसिद्ध (नृषद्मा) मनुष्यों में विराजमान (नभोवित्) उनके हृदयाकाश को प्राप्त (अपां विवर्तेन) प्राणों के विवर्तन से गमनागमन संस्थान को “आपो वै प्राणाः” [श॰ ४.८.२.२] (प्रसीदत्) जीवन प्रसाद देता है (यः-दधत्) जो उन प्राणों को धारण करता हुआ (धायी) तेरा धाता—ध्याता (ते विधते) तुझ आत्मसमर्पण करते हुए के लिये (वयांसि) अन्न ज्ञान जीवनों को (वसूनि) वास भोगों का (सु-यन्ता) सुदाता (तनूपाः) तेरे शरीर का रक्षक परमात्मा है।
भावार्थ - परमात्मा अत्यन्त अपनाने वाला हृदयाकाश को प्राप्त हुआ मनुष्य में रहकर प्राणसंस्थान में जीवनप्रसाद देता है और प्राणों का धारक है वह सब प्रकार के अन्न ज्ञान जीवनबलों का तथा वास भोगधनों का अच्छा दाता है॥५॥
विशेष - ऋषिः—वत्सप्रिः (अपने को परमात्मा का प्रेमपात्र बनाने वाला उपासक)॥<br>
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