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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 794
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ऋ꣣ते꣢न꣣ या꣡वृ꣢ता꣣वृ꣡धा꣢वृ꣣त꣢स्य꣣ ज्यो꣡ति꣢ष꣣स्प꣡ती꣢ । ता꣢ मि꣣त्रा꣡वरु꣢꣯णा हुवे ॥७९४॥

स्वर सहित पद पाठ

ऋते꣡न꣢ । यौ । ऋ꣣तावृ꣡धौ꣢ । ऋ꣣त । वृ꣡धौ꣢꣯ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । ज्यो꣡ति꣢꣯षः । पती꣢꣯इ꣡ति꣢ । ता । मि꣡त्रा꣢ । मि꣡ । त्रा꣢ । व꣡रु꣢꣯णा । हु꣣वे ॥७९४॥


स्वर रहित मन्त्र

ऋतेन यावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती । ता मित्रावरुणा हुवे ॥७९४॥


स्वर रहित पद पाठ

ऋतेन । यौ । ऋतावृधौ । ऋत । वृधौ । ऋतस्य । ज्योतिषः । पतीइति । ता । मित्रा । मि । त्रा । वरुणा । हुवे ॥७९४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 794
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(यौ) जो (मित्रावरुणौ) मित्र और वरुण परमात्मा (तौ) वे (ऋतेन) यथार्थ ज्ञान से वर्तमान हैं (ऋतावृधौ) यथार्थ ज्ञान के वर्धक हैं (ऋतस्य ज्योतिषः) यथार्थ ज्ञानज्योति के (पती) पालक हैं—पालन करने वाले हैं (ता) उन्हें (हुवे) मैं आमन्त्रित करता हूँ।

भावार्थ - संसार में कर्मकरणार्थ प्रेरक और मोक्ष कर्मफलभोगार्थ अङ्गीकारकर्ता परमात्मा यथार्थ ज्ञान से वर्तमान है, यथार्थ ज्ञान का वर्धक है। यथार्थ ज्ञान ज्योति के पालन कराने वाला है, उससे जीवन धारण करना चाहिये॥२॥

विशेष - <br>

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