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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 844
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣣ग्नि꣢ना꣣ग्निः꣡ समि꣢꣯ध्यते क꣣वि꣢र्गृ꣣ह꣡प꣢ति꣣र्यु꣡वा꣢ । ह꣣व्यवा꣢ड्जु꣣꣬ह्वा꣢꣯स्यः ॥८४४॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ग्नि꣡ना꣢ । अ꣣ग्निः꣢ । सम् । इ꣣ध्यते । कविः꣢ । गृ꣣ह꣢प꣢तिः । गृ꣣ह꣢ । प꣣तिः । यु꣡वा꣢꣯ । ह꣣व्य꣢वाट् । ह꣣व्य । वा꣢ट् । जु꣣ह्वा꣢स्यः । जु꣣हू꣢ । आ꣣स्यः ॥८४४॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्निनाग्निः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा । हव्यवाड्जुह्वास्यः ॥८४४॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्निना । अग्निः । सम् । इध्यते । कविः । गृहपतिः । गृह । पतिः । युवा । हव्यवाट् । हव्य । वाट् । जुह्वास्यः । जुहू । आस्यः ॥८४४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 844
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(अग्निना) आत्मरूप अग्नि से—आत्मसमर्पण से (अग्निः-समिध्यते) सर्वप्रकाशक परमात्मा स्वात्मा के अन्दर प्रकाशित होता है “अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेद्धस्व” [आश्व॰ १.१०.१२] जो कि (कविः) क्रान्तदर्शी—सर्वज्ञ (गृहपतिः) ब्रह्माण्ड के स्वामी परमात्मा “प्रजापतिरेव गृहपतिरासीत्” [श॰ १२.१.१.१] (युवा) सदा यौवनसम्पन्न “अकामो....तमेव विद्वान्....अजरं युवानम्” [अथर्व॰ १०.८.४४] (हव्यवाट्) स्तुतिरूप भेंट को वहन करने वाला “किं मे हव्यमहृणानो जुषेत” [ऋ॰ ७.८६.२] (जुह्वास्यः) जुहू—वाणी “वाग्—जुहूः” [तै॰ आ॰ २.१७.२] स्तुति फेंकने—प्रेरित करने का साधन जिसके लिए है वह ऐसा परमात्मा है।

भावार्थ - उपासक के आत्मा द्वारा—आत्मसमर्पण से उपासक के अन्दर परमात्मा अग्नि प्रकाशित हो जाता है जो कि क्रान्तदर्शी सर्वज्ञ, ब्रह्माण्डस्वामी सदा युवा स्तुति भेंट को स्वीकार करने वाला और वाणी जिसके लिए स्तुति प्रेरित करने का साधन है॥१॥

विशेष - ऋषिः—मेधातिथिः (मेधा से परमात्मा में गमन प्रवेश करने वाला उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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