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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 9
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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त्वा꣡म꣢ग्ने꣣ पु꣡ष्क꣢रा꣣द꣡ध्यथ꣢꣯र्वा꣣ नि꣡र꣢मन्थत । मू꣣र्ध्नो꣡ विश्व꣢꣯स्य वा꣣घ꣡तः꣢ ॥९॥

स्वर सहित पद पाठ

त्वा꣢म् । अ꣣ग्ने । पु꣡ष्क꣢꣯रात् । अ꣡धि꣢꣯ । अ꣡थ꣢꣯र्वा । निः । अ꣣मन्थत । मूर्ध्नः꣢ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । वा꣣घ꣡तः꣢ ॥९॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत । मूर्ध्नो विश्वस्य वाघतः ॥९॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वाम् । अग्ने । पुष्करात् । अधि । अथर्वा । निः । अमन्थत । मूर्ध्नः । विश्वस्य । वाघतः ॥९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 9
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(अग्ने) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (त्वाम्) तुझे (अथर्वा) स्थिर वृत्ति वाला ध्यानीजन “अथर्वा-थर्वतिश्चरति कर्मा तत्प्रतिषेधः” [निरु॰ ११.१९] (विश्वस्य मूर्ध्नः—वाघतः) समस्त प्राणीमात्र के मूर्धारूप तथा वहन करने वाले वाहक—निर्वाहक—“वाघतो वोढारः-वाघत्-वोढा” [निरु॰ ११.१६] (पुष्करात्-अधि) पुष्कर—वपुष्कर—शरीर निर्माण करने वाले “पुष्करं वपुष्करम्” [निरु॰ ५.१४] हृदयकमल में “पुष्करं पुण्डरीकम्” [तां॰ १८.९.६] “पुण्डरीकं नव द्वारम्” [अथर्व॰ १०.८.४३] “हृदयपुण्डरीके” [योग॰ १.३६ व्यासः] (निरमन्थत) निर्मन्थित करता है—साक्षात् करता है।

भावार्थ - हाँ हे मेरे परमात्मन्! मैं समझ गया, तेरे समागम का अवमसधस्थ मेरे शरीर में हृदय सदन है जो देह का निर्माण करने वाला एवं रक्त और प्राणों का प्रमुख वाहक है। यहाँ पर ही अभ्यास और वैराग्य के सम्मिश्रण से या सगुण और निर्गुण स्तुतियों के निर्मन्थन से स्थिरध्यानीजन तुझे प्रकाशित करता है—साक्षात् करता है जैसे दो काष्ठों के अनुलोम प्रतिलोम मन्थन से या खनिज वस्तुओं के संघर्षण से अग्नि को प्रकाशित करते हैं। उस तुझ परमेश्वर का साक्षात् कर मैं भी अपने को कृतकृत्य करूँ॥९॥

विशेष - ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्मा के अर्चन ज्ञान बल को अपने अन्दर धारण करने वाला उपासक)॥<br>

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