अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - आसुरी गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
नाष्ट॒मो न न॑व॒मो द॑श॒मो नाप्यु॑च्यते ॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒ष्ट॒म: । न । न॒व॒म: । द॒श॒म: । न । अपि॑ । उ॒च्य॒ते॒ ॥५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठन । अष्टम: । न । नवम: । दशम: । न । अपि । उच्यते ॥५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 18
विषय - परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ -
वह (न) न (अष्टमः) आठवाँ, (न) न (नवमः) नवाँ, (न) न (दशमः) दसवाँ (अपि) ही (उच्यते) कहा जाता है ॥१८॥
भावार्थ - परमेश्वर एक है, उससे भिन्न कोई भी दूसरा, तीसरा आदि ईश्वर नहीं है, सब लोग उसी की उपासना करें। इन मन्त्रों में दो से लेकर दस तक दूसरे ईश्वर होने का निषेध इसलिये किया है कि सब संख्या का मूल एक [१] अङ्क है, इसी एक को दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ और नौ बार गणने से २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, और ९ अङ्क बनते हैं, और एक पर शून्य देने से १० दस का अङ्क बनता है। उसे वेद ने एक ईश्वर का निश्चय कराके दूसरे ईश्वर होने का सर्वथा निषेध किया है, अर्थात् उसके एकपने में भी भेद नहीं और वह शून्य भी नहीं, किन्तु वह सच्चिदानन्दगुणयुक्त एकरस परमात्मा है ॥१६-१८॥१−यह मन्त्र महर्षि दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ब्रह्मविद्याविषय पृ० ९०, ९१ में व्याख्यात हैं, और उन्हीं के भेद से यहाँ अर्थ किया गया है ॥२−मन्त्र १६ से लेकर २२ तक मन्त्रों के पीछे आवृत्ति का चिह्न गवर्नमेन्ट बुक डिपो बम्बई और वैदिक यन्त्रालय अजमेर के पुस्तकों में दिया है, अर्थात् मन्त्र १५ की आवृत्ति मानी है। परन्तु यह चिह्न प० सेवकलालवाले पुस्तक में नहीं है और न कुछ इस के विषय में ग्रिफ़्फ़िथ साहिब और ह्विटनी साहिब के अनुवाद में है और न महर्षि दयानन्दकृत उक्त पुस्तक में आवृत्ति का चिह्न है ॥
टिप्पणी -
१६-१८−(न) निषेधे (अपि) एव (उच्यते) कथ्यते। अन्यत् सुगमम् ॥