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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 21
    सूक्त - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    शर्म॒ वर्मै॒तदाह॑रा॒स्यै नार्या॑ उप॒स्तिरे॑। सिनी॑वालि॒ प्र जा॑यतां॒ भग॑स्य सुम॒ताव॑सत्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शर्म॑ । वर्म॑ । ए॒तत् । आ । ह॒र॒। अ॒स्यै । नार्यै॑ । उ॒प॒ऽस्तरे॑ । सिनी॑वालि । प्र । जा॒य॒ता॒म् । भग॑स्य । सु॒ऽम॒तौ । अ॒स॒त् ॥२.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शर्म वर्मैतदाहरास्यै नार्या उपस्तिरे। सिनीवालि प्र जायतां भगस्य सुमतावसत्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शर्म । वर्म । एतत् । आ । हर। अस्यै । नार्यै । उपऽस्तरे । सिनीवालि । प्र । जायताम् । भगस्य । सुऽमतौ । असत् ॥२.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 21

    पदार्थ -
    [हे विद्वान् !] (एतत्) यह [गृहकार्यरूप] (शर्म) सुखदायक (वर्म) कवच (अस्यै नार्यै) इस नारी को (उपस्तिरे) ओढ़ने के लिये (आ हर) ला। (सिनीवालि) हे अन्नवाली पत्नी ! [तुझ से] (प्र जायताम्) उत्तम सन्तान उत्पन्न होवे, और वह [सन्तान] (भगस्य) भगवान् [ऐश्वर्यवान् परमात्मा] की (सुमतौ) सुमति में (असत्) रहे ॥२१॥

    भावार्थ - पति आदि सब वधू को गृहकार्य में सदा सहाय देवें, जैसे योद्धा को कवच रणक्षेत्र में सहाय देता है, औरसब पुरुष उस वधू के वीर ईश्वरभक्त सन्तान से सुख प्राप्त करें ॥२१॥इस मन्त्र काउत्तरार्द्ध ऊपर मन्त्र १५ में आचुका है ॥

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