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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 17/ मन्त्र 10
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - साम्नी अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तस्य॒व्रात्य॑स्य। एकं॒ तदे॑षाममृत॒त्वमित्याहु॑तिरे॒व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑म् । तत् । ए॒षा॒म् । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । इति॑ । आऽहु॑ति: । ए॒व ॥१७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्यव्रात्यस्य। एकं तदेषाममृतत्वमित्याहुतिरेव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकम् । तत् । एषाम् । अमृतऽत्वम् । इति । आऽहुति: । एव ॥१७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 17; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    (तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] की−(आहुतिः) आहुति [दानक्रिया] (एव)ही (एषाम्) इन [विद्वानों] का (एकम्) केवल (तत्) वह [प्रसिद्ध] (अमृतत्वम्)अमरपन [जीवन अर्थात् पुरुषार्थ] है−(इति) यह निश्चित है ॥१०॥

    भावार्थ - जब विद्वान् संन्यासीअपने आत्मा को संसार की भलाई में लगा देता है, विद्वान् लोग उसकी मर्यादा कोमानकर पुरुषार्थ करते और क्लेशों को त्याग कर आनन्द भोगते हैं ॥१०॥

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