Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदार्षो पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    बृ॑ह॒ते च॒ वै सर॑थन्त॒राय॑ चादि॒त्येभ्य॑श्च॒ विश्वे॑भ्यश्च दे॒वेभ्य॒ आ वृ॑श्चते॒ य ए॒वंवि॒द्वांसं॒ व्रात्य॑मुप॒वद॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒ह॒ते । च॒ । वै । स: । र॒थ॒म्ऽत॒राय॑ । च॒ । आ॒दि॒त्येभ्य॑: । च॒ । विश्वे॑भ्य: । च॒ । दे॒वेभ्य॑: । आ । वृ॒श्च॒ते॒ । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । व्रात्य॑म् । उ॒प॒ऽवद॑ति ॥२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहते च वै सरथन्तराय चादित्येभ्यश्च विश्वेभ्यश्च देवेभ्य आ वृश्चते य एवंविद्वांसं व्रात्यमुपवदति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहते । च । वै । स: । रथम्ऽतराय । च । आदित्येभ्य: । च । विश्वेभ्य: । च । देवेभ्य: । आ । वृश्चते । य: । एवम् । विद्वांसम् । व्रात्यम् । उपऽवदति ॥२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (सः) वह [मूर्ख] (वै)निश्चय करके (बृहते) बृहत् [बड़े आकाश] के लिये (च च) और (रथन्तराय) रथन्तर [रमणीय गुणों द्वारा पार होने योग्य जगत्] के लिये (च) और, (आदित्येभ्यः)चमकनेवाले सूर्य आदि के लिये (च) और (विश्वेभ्यः) सब (देवेभ्यः) गतिवाले लोकोंके लिये (आ) सब प्रकार (वृश्चते) दोषी होता है, (यः) जो [मूर्ख] (एवम्) ऐसे वाव्यापक (विद्वांसम्) ज्ञानवान् (व्रात्यम्) व्रात्य [सब समूहों के हितकारीपरमात्मा] को (उपवदति) बुरा कहता है ॥३॥

    भावार्थ - जो मनुष्य परमात्मा केगुणों को साक्षात् न करके तत्त्वज्ञान नहीं पाता, वह संसार के पदार्थों सेयथावत् उपकार नहीं ले सकता ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top