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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - पिपीलिकमध्या गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    ससं॑वत्स॒रमू॒र्ध्वोऽति॑ष्ठ॒त्तं दे॒वा अ॑ब्रुव॒न्व्रात्य॒ किं नु ति॑ष्ठ॒सीति॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । स॒म्ऽव॒त्स॒रम् । ऊ॒र्ध्व: । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । तम् । दे॒वा: । अ॒ब्रु॒व॒न् । व्रात्य॑ । किम् । नु । ति॒ष्ठ॒सि॒ । इति॑ ॥३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ससंवत्सरमूर्ध्वोऽतिष्ठत्तं देवा अब्रुवन्व्रात्य किं नु तिष्ठसीति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । सम्ऽवत्सरम् । ऊर्ध्व: । अतिष्ठत् । तम् । देवा: । अब्रुवन् । व्रात्य । किम् । नु । तिष्ठसि । इति ॥३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 3; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (सः) वह [व्रात्यपरमात्मा] (संवत्सरम्) वर्ष भर तक [कुछ काल तक] (ऊर्ध्वः) ऊँचा (अतिष्ठत्) खड़ारहा, (तम्) उससे (देवाः) देवता [विद्वान् लोग] (अब्रुवन्) बोले−(व्रात्य) हेव्रात्य ! [सब समूहों के हितकारी परमात्मन्] (किम्) क्यों (नु) अब (तिष्ठसि इति)तू खड़ा है ॥१॥

    भावार्थ - ऋषि लोग परमात्मा कीसत्ता को विविध प्रकार विचारें कि वह जगदीश्वर प्रलय और सृष्टि के बीच क्या करताहै ॥१॥

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