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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 45
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - ककुम्मती अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    अमा॑सि॒ मात्रां॒स्वरगा॒मायु॑ष्मान्भूयासम्। यथाप॑रं॒ न मासा॑तै श॒ते श॒रत्सु॑ नो पु॒रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अमा॑सि । मात्रा॑म् । स्व॑: । अ॒गा॒म् । आयु॑ष्मान् । भू॒या॒स॒म् । यथा॑ । अप॑रम् । न । मासा॑तै । श॒ते । श॒रत्ऽसु॑ । नो इति॑ । पु॒रा ॥२.४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमासि मात्रांस्वरगामायुष्मान्भूयासम्। यथापरं न मासातै शते शरत्सु नो पुरा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमासि । मात्राम् । स्व: । अगाम् । आयुष्मान् । भूयासम् । यथा । अपरम् । न । मासातै । शते । शरत्ऽसु । नो इति । पुरा ॥२.४५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 45

    पदार्थ -
    (मात्राम्) मात्रा [इसवेदोक्त मर्यादा] को (अमासि) मैं नापूँ, (स्वः) सुख (अगाम्) पाऊँ, और (आयुष्मान्)उत्तम जीवनवाला (भूयासम्) मैं हो जाऊँ। (यथा) क्योंकि (अपरम्) अन्य प्रकार से [उस मर्यादा को, कोई भी] (न) नहीं (मासातै) नाप सकता, (शते) शरत्सु) सौ वर्षोंमें भी (पुरा) लगातार (नो) कभी नहीं ॥४५॥

    भावार्थ - प्रत्येक मनुष्य वेदविहित ईश्वरमर्यादा पर चल कर मोक्षसुख प्राप्त करे, वेदविमुख पुरुष सारे जीवनभर भी प्रयत्न करने पर ईश्वरनियम को नहीं हटा सकता ॥४५॥

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