अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
यत्ते॑ दर्भ ज॒रामृ॑त्युः श॒तं वर्म॑सु॒ वर्म॑ ते। तेने॒मं व॒र्मिणं॑ कृ॒त्वा स॒पत्नां॑ ज॒हि वी॒र्यैः ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। ते॒। द॒र्भ॒। ज॒राऽमृ॑त्युः। श॒तम्। वर्म॑ऽसु। वर्म॑। ते॒। तेन॑। इ॒मम्। व॒र्मिण॑म्। कृ॒त्वा। स॒ऽपत्ना॑न्। ज॒हि॒। वी॒र्यैः᳡ ॥३०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते दर्भ जरामृत्युः शतं वर्मसु वर्म ते। तेनेमं वर्मिणं कृत्वा सपत्नां जहि वीर्यैः ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। ते। दर्भ। जराऽमृत्युः। शतम्। वर्मऽसु। वर्म। ते। तेन। इमम्। वर्मिणम्। कृत्वा। सऽपत्नान्। जहि। वीर्यैः ॥३०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
विषय - सेनापति के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ -
(दर्भ) हे दर्भ ! [शत्रुविदारक सेनापति] (यत्) जो (ते) तेरा (जरामृत्युः) जरा [निर्बलता] को मृत्यु [के समान दुःखदायी] समझना है, और [जो] (वर्मसु) कवचों के बीच (ते) तेरा (वर्म) कवच (शतम्) सौ प्रकार का है। (तेन) उसी [कारण] से (इमम्) इस [शूर] को (वर्मिणम्) कवचधारी (कृत्वा) करके (सपत्नान्) वैरियों को (वीर्यैः) वीरकर्मों से (जहि) नाश कर ॥१॥
भावार्थ - पराक्रमी शूर सेनापति अपने दृष्टान्त से अन्य पुरुषों को वीर बनाकर शत्रुओं का नाश करे ॥१॥
टिप्पणी -
१−(यत्) यः (ते) तव (दर्भ) हे शत्रुविदारक सेनापते (जरामृत्युः) जरा निर्बलता मृत्युरिव दुःखदायिनी यस्मिन् स व्यवहारः (शतम्) बहुप्रकारम् (वर्मसु) कवचेषु (वर्म) कवचम्। रक्षासाधनम् (ते) तव (तेन) कारणेन (इमम्) (वर्मिणम्) कवचिनम् (कृत्वा) विधाय (सपत्नान्) शत्रून् (जहि) नाशय (वीर्यैः) वीरकर्मभिः ॥