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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 44

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृगु देवता - आञ्जनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त

    आयु॑षोऽसि प्र॒तर॑णं॒ विप्रं॑ भेष॒जमु॑च्यसे। तदा॑ञ्जन॒ त्वं श॑न्ताते॒ शमापो॒ अभ॑यं कृतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आयु॑षः। अ॒सि॒। प्र॒ऽतर॑णम्। विप्र॑म्। भे॒ष॒जम्। उ॒च्य॒से॒। तत्। आ॒ऽअ॒ञ्ज॒न॒। त्वम्। श॒म्ऽता॒ते॒। शम्। आपः॑। अभ॑यम्। कृ॒त॒म् ॥४४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयुषोऽसि प्रतरणं विप्रं भेषजमुच्यसे। तदाञ्जन त्वं शन्ताते शमापो अभयं कृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आयुषः। असि। प्रऽतरणम्। विप्रम्। भेषजम्। उच्यसे। तत्। आऽअञ्जन। त्वम्। शम्ऽताते। शम्। आपः। अभयम्। कृतम् ॥४४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे ब्रह्म !] तू (आयुषः) जीवन का (प्रतरणम्) बढ़ानेवाला (असि) है, तू (विप्रम्) परिपूर्ण (भेषजम्) औषध (उच्यसे) कहा जाता है। (तत्) सो, (शन्ताते) हे शान्तिकारक ! (आञ्जन) आञ्जन [संसार प्रकट करनेवाले ब्रह्म], (त्वम्) तू (आपः) हे सुकर्म ! [तुम दोनों] (शम्) शान्ति और (अभयम्) अभय (कृतम्) करो ॥१॥

    भावार्थ - जो प्राणी परमात्मा के नियम पर चलकर सुकर्म करते हैं, वे सदा सुखी और निर्भय रहते हैं ॥१॥

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