अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - प्राणः, अपानः, आयुः
छन्दः - एदपदासुरीत्रिष्टुप्
सूक्तम् - बल प्राप्ति सूक्त
ओजो॒ऽस्योजो॑ मे दाः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठओज॑: । अ॒सि॒ । ओज॑: । मे॒ । दा॒: । स्वाहा॑ ॥१७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ओजोऽस्योजो मे दाः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठओज: । असि । ओज: । मे । दा: । स्वाहा ॥१७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
विषय - आयु बढ़ाने के लिये उपदेश।
पदार्थ -
[हे ईश्वर] तू (ओजः) शारीरिक सामर्थ्य (असि) है, (मे) मुझे (ओजः) शारीरिक सामर्थ्य (दाः=दद्याः) दे, (स्वाहा) यह सुन्दर आशीर्वाद हो ॥१॥
भावार्थ - (ओजः) बल और प्रकाश का नाम है। वैद्यक में रसादि सात धातुओं से उत्पन्न, आठवें धातु शरीर के बल और पुष्टि के कारण और ज्ञानेन्द्रियों की नीरोगता को (ओजः) कहते हैं। जैसे (ओजः) हमारे शरीरों के लिये है, वैसे ही परमात्मा सब ब्रह्माण्ड के लिये है, ऐसा विचारकर मनुष्यों को शारीरिक शक्ति बढ़ानी चाहिये ॥१॥ इस सूक्त का पाठ यजुर्वेद के पाठ से प्रायः मिलता है–अ० १९।९। तेजो॑ऽसि॒ तेजो॒ मयि॑ धेहि। वी॒र्य॒मसि वीर्यं॑ मयि॑ धेहि। बल॑मसि॒ बलं॒ मयि॑ धेहि। ओजो॒ऽस्योजो॒ मयि॑ धेहि। म॒न्युर॑सि म॒न्युं मयि॑ धेहि। सहो॑ऽसि॒ सहो॒ मयि॑ धेहि ॥१॥ तू तेज है, मुझमें तेज धारण कर–इत्यादि ॥
टिप्पणी -
१–ओजः। अ० १।१२।१। ओज बले, तेजसि–असुन्। बलम्। प्रकाशः। वैद्यके रसादिसप्तधातुसारजधातुविशेषः शरीरस्य बलपुष्टिकारणम्। ज्ञानेन्द्रियाणां पाटवम्। मे। मह्यम्। दाः। त्वं दद्याः, देयाः ॥