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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
    सूक्त - कपिञ्जलः देवता - ओषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त

    नेच्छत्रुः॒ प्राशं॑ जयाति॒ सह॑मानाभि॒भूर॑सि। प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । इत् । शत्रु॑: । प्राश॑म् । ज॒या॒ति॒ । सह॑माना । अ॒भि॒ऽभू: । अ॒सि॒ । प्राश॑म् । प्रति॑ऽप्राश: । ज॒हि॒ । अ॒र॒सान् । कृ॒णु॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नेच्छत्रुः प्राशं जयाति सहमानाभिभूरसि। प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान्कृण्वोषधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । इत् । शत्रु: । प्राशम् । जयाति । सहमाना । अभिऽभू: । असि । प्राशम् । प्रतिऽप्राश: । जहि । अरसान् । कृणु । ओषधे ॥२७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (शत्रुः) वैरी (प्राशम्) प्रश्नकर्ता [मुझ] को (न इत्) कभी न (जयाति) जीते, [हे बुद्धि] तू (सहमाना) जयशील और (अभिभूः) प्रबल (असि) है। (प्राशम्) [मुझ] प्रश्नकर्ता के (प्रतिप्राशः) प्रतिकूलवादियों को (जहि) मिटा दे, (ओषधे) हे ताप की पीनेवाली [ज्वरादिताप हरनेवाली औषध के समान बुद्धि उन सबको] (अरसान्) नीरस [फींका] (कृणु) कर ॥१॥

    भावार्थ - इस सूक्त में ओषधि के उदाहरण से बुद्धि का ग्रहण है। ओषधि का अर्थ निरु० ९।२७। में किया है “ओषधियें ओषत्, दाह वा ताप को पी लेती हैं अथवा ताप में इनको पीते हैं, अथवा ये दोष को पी लेती हैं।” मन्त्र का आशय। जिस प्रकार शुद्ध परीक्षित ओषधि के सेवन करने से ज्वर आदि रोग नष्ट होते हैं, ऐसे ही मनुष्य के बुद्धिपूर्वक, प्रमाणयुक्त विवाद करने से बाहिरी और भीतरी प्रतिपक्षी हार जाते हैं ॥१॥

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