Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 140

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 140/ मन्त्र 1
    सूक्त - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त १४०

    यन्ना॑सत्या भुर॒ण्यथो॒ यद्वा॑ देव भिष॒ज्यथः॑। अ॒यं वां॑ व॒त्सो म॒तिभि॒र्न वि॑न्धते ह॒विष्म॑न्तं॒ हि गच्छ॑थः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ना॒स॒त्या॒ । भु॒र॒ण्यथ॑: । यत् । वा॒ । दे॒वा॒ । भि॒ष॒ज्यथ॑: ॥ अ॒यम् । वा॒म् । व॒त्स: । म॒तिऽभि॑: । न । वि॒न्धते॒ । ह॒विष्म॑न्तम् । हि । गच्छ॑थ: ॥१४०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्नासत्या भुरण्यथो यद्वा देव भिषज्यथः। अयं वां वत्सो मतिभिर्न विन्धते हविष्मन्तं हि गच्छथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । नासत्या । भुरण्यथ: । यत् । वा । देवा । भिषज्यथ: ॥ अयम् । वाम् । वत्स: । मतिऽभि: । न । विन्धते । हविष्मन्तम् । हि । गच्छथ: ॥१४०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 140; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (नासत्या) हे असत्य न रखनेवाले दोनो ! [दिन-राति] (यत्) क्योंकि (भुरण्यथः) तुम पोषण करते हो, (वा) और, (देवा) हे व्यवहारकुशल दोनो ! (यत्) क्योंकि (भिषज्यथः) तुम औषध करते हो। (अयम्) यह (वत्सः) बोलनेवाला (वाम्) तुम दोनों को (मतिभिः) अपनी बुद्धियों से (न) नहीं (विन्धते) पाता है, (हविष्मन्तम्) भक्ति रखनेवाले को (हि) ही (गच्छथः) तुम दोनों मिलते हो ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य दिन राति का सुन्दर प्रयोग करके पुष्ट, स्वस्थ, विद्वान् होकर आनन्द पावें ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top