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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 94

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 94/ मन्त्र 1
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९४

    आ या॒त्विन्द्रः॒ स्वप॑ति॒र्मदा॑य॒ यो धर्म॑णा तूतुजा॒नस्तुवि॑ष्मान्। प्र॑त्वक्षा॒णो अति॒ विश्वा॒ सहां॑स्यपा॒रेण॑ मह॒ता वृष्ण्ये॑न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । या॒तु॒ । इन्द्र॑: । स्वऽप॑ति: । मदा॑य । य: । धर्म॑णा । तू॒तु॒जा॒न: । तुवि॑ष्मान् ॥ प्र॒ऽत्व॒क्षा॒ण: । अति॑ । विश्वा॑ । सहां॑सि । अ॒पा॒रेण॑ । म॒ह॒ता । वृष्ण्ये॑न ॥९४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यात्विन्द्रः स्वपतिर्मदाय यो धर्मणा तूतुजानस्तुविष्मान्। प्रत्वक्षाणो अति विश्वा सहांस्यपारेण महता वृष्ण्येन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । यातु । इन्द्र: । स्वऽपति: । मदाय । य: । धर्मणा । तूतुजान: । तुविष्मान् ॥ प्रऽत्वक्षाण: । अति । विश्वा । सहांसि । अपारेण । महता । वृष्ण्येन ॥९४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (स्वपतिः) धन का स्वामी वा स्वयं स्वामी (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (मदाय) हमारे आनन्द के लिये (आ यातु) आवे, (यः) जो [राजा] (धर्मणा) धर्म के साथ (तूतुजानः) फुरतीला, (तुविष्मान्) वृद्धिवाला और (अपारेण) अपने अपार (महता) बड़े (वृष्ण्येन) साहस से [वैरियों के] (विश्वा) सब (सहांसि) जीतनेवाले बलों को (अति) सर्वथा (प्रत्वक्षमाणः) रेतनेवाला [छीलनेवाला] है ॥१॥

    भावार्थ - राजा और प्रजा परस्पर सहाय करके शत्रुओं का नाश करें ॥१॥

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