Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 25

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 25/ मन्त्र 4
    सूक्त - भृगुः देवता - मित्रावरुणौ, कामबाणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कामबाण सूक्त

    शु॒चा वि॒द्धा व्यो॑षया॒ शुष्का॑स्या॒भि स॑र्प मा। मृ॒दुर्निम॑न्युः॒ केव॑ली प्रियवा॒दिन्यनु॑व्रता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒चा । वि॒ध्दा । विऽओ॑षया । शुष्क॑ऽआस्या । अ॒भि । स॒र्प॒ । मा॒ । मृ॒दु: । निऽम॑न्यु: । केव॑ली । प्रि॒य॒ऽवा॒दिनी॑ । अनु॑ऽव्रता॥२५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुचा विद्धा व्योषया शुष्कास्याभि सर्प मा। मृदुर्निमन्युः केवली प्रियवादिन्यनुव्रता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुचा । विध्दा । विऽओषया । शुष्कऽआस्या । अभि । सर्प । मा । मृदु: । निऽमन्यु: । केवली । प्रियऽवादिनी । अनुऽव्रता॥२५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [हे विद्या] (व्योषया) विशेष दाह करनेवाली (शुचा) पीड़ा से (विद्धा) बिंधी हुई, (शुष्कास्या) सूखे मुखवाली, (मृदुः) कोमल स्वभाववाली (निमन्युः) निरभिमान, (केवली) सेवनीया, (प्रियवादिनी) प्रिय बोलनेवाली और (अनुव्रता) अनुकूल आचरणवाली [पतिव्रता स्त्री के समान] तू (मा अभि) मेरी ओर (सर्प) चली आ ॥४॥

    भावार्थ - यहाँ से तीन मन्त्र विद्यापरक हैं। मन्त्र का आशय यह है, जो ब्रह्मचारी विद्या के लिए पूरी लालसा से यत्नपूर्वक परिश्रम करता है, विद्या शीघ्र ही उसको मिलकर हितकारिणी होती है, जैसे सती गुणवती स्त्री मन, वचन और कर्म से अपने पति की सेवा करती है ॥४॥ ऋग्वेद के परमब्रह्मज्ञान सूक्त वा विद्यासूक्त में भी विद्या की उपमा पतिव्रता स्त्री से दी है। उ॒त त्वः॒ पश्य॒न्न द॑दर्श॒ वाच॑मु॒त त्वः॑ शृ॒ण्वन्न शृ॑णोत्येनाम्। उतो त्व॑स्मै तन्वं१ विस॑स्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासाः॑ ॥ ऋ० १०।७१।४ ॥ (त्वः) एक पुरुष ने (पश्यन् उत) देखते हुए भी (वाचम्) वेद वाणी को (न ददर्श) नहीं देखा है, (त्वः) एक पुरुष (शृण्वन् उत) सुनता हुआ भी (एनाम्) इसको (न शृणोति) नहीं सुनता है। (उतो) किन्तु (त्वस्मै) एक पुरुष को [अपना] (तन्वम्) स्वरूप [परमज्ञान] (विसस्रे) उसने दिखाया है, (इव) जैसे (उशती) अनुरागवती (सुवासाः) सुन्दर वस्त्रवाली (जाया) पत्नी [अपने] (पत्ये) पति को ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top