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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - शङ्खमणिः, कृशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त

    वाता॑ज्जा॒तो अ॒न्तरि॑क्षाद्वि॒द्युतो॒ ज्योति॑ष॒स्परि॑। स नो॑ हिरण्य॒जाः श॒ङ्खः कृश॑नः पा॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाता॑त् । जा॒त: । अ॒न्तरि॑क्षात् । वि॒ऽद्युत॑: । ज्योति॑ष: । परि॑ । स: । न॒: । हि॒र॒ण्य॒ऽजा: । श॒ङ्ख: । कृश॑न: । पा॒तु॒ । अंह॑स: ॥१०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाताज्जातो अन्तरिक्षाद्विद्युतो ज्योतिषस्परि। स नो हिरण्यजाः शङ्खः कृशनः पात्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वातात् । जात: । अन्तरिक्षात् । विऽद्युत: । ज्योतिष: । परि । स: । न: । हिरण्यऽजा: । शङ्ख: । कृशन: । पातु । अंहस: ॥१०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (वातात्) पवन से, (अन्तरिक्षात्) आकाश से (विद्युतः) बिजुली से और (ज्योतिषः) सूर्य से (परि) ऊपर (जातः) प्रकट होनेवाला (सः) दुःखनाशक ईश्वर (हिण्यजाः) सूर्यादि तेजों का उत्पन्न करनेवाला, (कृशनः) सूक्ष्म रचना करनेवाला, (शङ्खः) सबों का विवेचन करनेवाला वा देखनेवाला, वा शान्ति देनेवाला परमेश्वर (नः) हमको (अंहसः) रोगजनक दुष्कर्म से (पातु) बचावे ॥१॥

    भावार्थ - परमेश्वर संसार के सब सूक्ष्म और स्थूल पदार्थों का रचनेवाला और हमारे गुप्त प्रकट कर्मों का देखने और विचारनेवाला है, उसका सदा ध्यान करके हुम दुष्कर्मों से बचकर सत्कर्म करते रहें ॥१॥

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