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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 10
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मजाया छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त

    पुन॒र्वै दे॒वा अ॑ददुः॒ पुन॑र्मनु॒ष्या॑ अददुः। राजा॑नः स॒त्यं गृ॑ह्णा॒ना ब्र॑ह्मजा॒यां पुन॑र्ददुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुन॑: । वै । दे॒वा: । अ॒द॒दु॒: । पुन॑: । म॒नु॒ष्या᳡: । अ॒द॒दु॒: । राजा॑न: । स॒त्यम् । गृ॒ह्णा॒ना: । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒याम् । पुन॑: । द॒दु॒: ॥१७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनर्वै देवा अददुः पुनर्मनुष्या अददुः। राजानः सत्यं गृह्णाना ब्रह्मजायां पुनर्ददुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुन: । वै । देवा: । अददु: । पुन: । मनुष्या: । अददु: । राजान: । सत्यम् । गृह्णाना: । ब्रह्मऽजायाम् । पुन: । ददु: ॥१७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    (देवाः) सूर्यादि देवताओं ने (पुनः) निश्चय करके (वै) ही (अददुः) दान किया है और (मनुष्याः) मनुष्यों ने (पुनः) निश्चय करके (अददुः) दान किया है। (सत्यम्) सत्य (गृह्णानाः) ग्रहण करते हुए (राजानः) राजा लोगों ने (ब्रह्मजायाम्) ब्रह्मविद्या को (पुनः) अवश्य (ददुः) दिया है ॥१०॥

    भावार्थ - मनुष्य परस्पर सत्संग, राजनियम, और सूर्य आदि पदार्थों के विवेक से ब्रह्मविद्या का दान करते आये हैं, इसी प्रकार सब को करना चाहिये ॥१०॥

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