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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 9
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मजाया छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त

    ब्रा॑ह्म॒ण ए॒व पति॒र्न रा॑ज॒न्यो॒ न वैश्यः॑। तत्सूर्यः॑ प्रब्रु॒वन्ने॑ति प॒ञ्चभ्यो॑ मान॒वेभ्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रा॒ह्म॒ण: । ए॒व । पति॑: । न । रा॒ज॒न्य᳡: । न । वैश्य॑: । तत् । सूर्य॑: । प्र॒ऽब्रु॒वन् । ए॒ति॒ । प॒ञ्चऽभ्य॑:। मा॒न॒वेभ्य॑: ॥१७.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्राह्मण एव पतिर्न राजन्यो न वैश्यः। तत्सूर्यः प्रब्रुवन्नेति पञ्चभ्यो मानवेभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्राह्मण: । एव । पति: । न । राजन्य: । न । वैश्य: । तत् । सूर्य: । प्रऽब्रुवन् । एति । पञ्चऽभ्य:। मानवेभ्य: ॥१७.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    (ब्राह्मणः) वेदवेत्ता ब्राह्मण (एव) ही (पतिः) रक्षक है, (न)(राजन्यः) क्षत्रिय और (न)(वैश्यः) वैश्य है। (तत्) यह बात (सूर्यः) सर्वप्रेरक परमेश्वर (पञ्चभ्यः) विस्तृत (मानवेभ्यः) मननशील मनुष्यों को (प्रब्रुवन्) कहता हुआ (एति) चलता है ॥९॥

    भावार्थ - ब्रह्मज्ञानी ही अपनी मानसिक शक्ति से वेद की रक्षा कर सकता है, दूसरे नहीं कर सकते, यह परमेश्वर का वचन है। इसलिये सब मनुष्य मुख्य वेद बल के साथ दूसरे गौण बलों को बढ़ावें ॥९॥

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