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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - त्वष्टा, पर्जन्यः, ब्रह्मणस्पतिः, अदितिः छन्दः - पथ्याबृहती सूक्तम् - आत्मगोपन सूक्त

    त्वष्टा॑ मे॒ दैव्यं॒ वचः॑ प॒र्जन्यो॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑। पु॒त्रैर्भ्रातृ॑भि॒रदि॑ति॒र्नु पा॑तु नो दु॒ष्टरं॒ त्राय॑माणं॒ सहः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वष्टा॑ । मे॒ । दैव्य॑म् । वच॑: । प॒र्जन्य॑: । ब्रह्म॑ण: । पति॑: । पु॒त्रै: । भातृ॑ऽभि: । अदि॑ति: । नु। पा॒तु॒: । न॒: । दु॒स्तर॑म् । त्राय॑माणम् । सह॑: ॥४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वष्टा मे दैव्यं वचः पर्जन्यो ब्रह्मणस्पतिः। पुत्रैर्भ्रातृभिरदितिर्नु पातु नो दुष्टरं त्रायमाणं सहः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वष्टा । मे । दैव्यम् । वच: । पर्जन्य: । ब्रह्मण: । पति: । पुत्रै: । भातृऽभि: । अदिति: । नु। पातु: । न: । दुस्तरम् । त्रायमाणम् । सह: ॥४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (त्वष्टा) सब का बनानेवाला, (पर्जन्यः) सींचनेवाला (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्ड का (पतिः) रक्षक, (अदितिः) अविनाशी परमेश्वर (पुत्रैः) पुत्रों और (भ्रातृभिः) भ्राताओं के सहित (मे) मेरे (दैव्यम्) देवताओं के हितकारक (वचः) वचन को और (नः) हमारे (दुस्तरम्) अजेय, (त्रायमाणम्) रक्षा करनेवाले (सहः) बल की (नु) शीघ्र (पातु) रक्षा करे ॥१॥

    भावार्थ - सब मनुष्य परमेश्वर की उपासना प्रार्थना करते हुए पूर्ण बल प्राप्त करके अपने कुटुम्बियों की रक्षा करें ॥१॥

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