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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
    सूक्त - मेधातिथिः देवता - इडा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - इडा सूक्त

    इडै॒वास्माँ अनु॑ वस्तां व्र॒तेन॒ यस्याः॑ प॒दे पु॒नते॑ देव॒यन्तः॑। घृ॒तप॑दी॒ शक्व॑री॒ सोम॑पृ॒ष्ठोप॑ य॒ज्ञम॑स्थित वैश्वदे॒वी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इडा॑ । ए॒व । अ॒स्मान् । अनु॑ । व॒स्ता॒म् । व्र॒तेन॑ । यस्या॑: । प॒दे । पु॒नते॑ । दे॒व॒ऽयन्त॑: । घृ॒तऽप॑दी । शक्व॑री । सोम॑ऽपृष्ठा । उप॑ । य॒ज्ञम् । अ॒स्थि॒त॒ । वै॒श्व॒ऽदे॒वी ॥२८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इडैवास्माँ अनु वस्तां व्रतेन यस्याः पदे पुनते देवयन्तः। घृतपदी शक्वरी सोमपृष्ठोप यज्ञमस्थित वैश्वदेवी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इडा । एव । अस्मान् । अनु । वस्ताम् । व्रतेन । यस्या: । पदे । पुनते । देवऽयन्त: । घृतऽपदी । शक्वरी । सोमऽपृष्ठा । उप । यज्ञम् । अस्थित । वैश्वऽदेवी ॥२८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 27; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (इडा एव) वही प्रशंसनीय विद्या (अस्मान्) हमें (व्रतेन) उत्तम कर्म से (अनु) अनुग्रह करके (वस्ताम्) ढके [शोभायमान करे], (यस्याः) जिसके (पदे) अधिकार में (देवयन्तः) उत्तमगुण चाहनेवाले पुरुष (पुनते) शुद्ध होते हैं। [और जो] (घृतपदी) प्रकाश का अधिकार रखनेवाली, (शक्वरी) समर्थ, (सोमपृष्ठा) ऐश्वर्य सींचनेवाली, (वैश्वदेवी) सब उत्तम पदार्थों से सम्बन्धवाली होकर (यज्ञम्) पूजनीय व्यवहार में (उप अस्थित) उपस्थित हुई है ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य वेद द्वारा शास्त्रविद्या, शस्त्रविद्या, शिल्पविद्या, वाणिज्यविद्या आदि प्राप्त करके ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१॥

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