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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - वासः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वास सूक्त

    अ॒भि त्वा॒ मनु॑जातेन॒ दधा॑मि॒ मम॒ वास॑सा। यथाऽसो॒ मम॒ केव॑लो॒ नान्यासां॑ की॒र्तया॑श्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भ‍ि । त्वा॒ । मनु॑ऽजातेन । दधा॑मि । मम॑ । वास॑सा । यथा॑ । अस॑: । मम॑ । केव॑ल: । न । अ॒न्यासा॑म् । की॒र्तया॑: । च॒न ॥३८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्वा मनुजातेन दधामि मम वाससा। यथाऽसो मम केवलो नान्यासां कीर्तयाश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभ‍ि । त्वा । मनुऽजातेन । दधामि । मम । वाससा । यथा । अस: । मम । केवल: । न । अन्यासाम् । कीर्तया: । चन ॥३८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 37; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे स्वामिन् !] (मनुजातेन) मननशील मनुष्यों में प्रसिद्ध (मम वाससा) अपने वस्त्र से (त्वा) तुझे (अभि दधामि) मैं बाँधती हूँ। (यथा) जिससे तू (केवलः) केवल (मम) मेरा (असः) होवे, (चन) और (अन्यासाम्) अन्य स्त्रियों का (न कीर्तयाः) तू न ध्यान करे ॥१॥

    भावार्थ - विवाह में विद्वानों के बीच वस्त्र का गठबन्धन करके वधू और वर दृढ़ प्रतिज्ञा करें कि पत्नी पतिव्रता और पति पत्नीव्रत होकर गृहस्थ आश्रम को प्रीतिपूर्वक निबाहें ॥१॥

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