यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 28
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - विराट् ब्राह्मी पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
7
पु॒रा क्रू॒रस्य॑ वि॒सृपो॑ विरप्शिन्नुदा॒दाय॑ पृथि॒वीं जी॒वदा॑नुम्। यामैर॑यँश्च॒न्द्रम॑सि स्व॒धाभि॒स्तामु॒ धीरा॑सोऽअनु॒दिश्य॑ यजन्ते।
स्वर सहित पद पाठपु॒रा। क्रूरस्य॑। वि॒सृप॒ इति वि॒ऽसृपः॑। वि॒र॒प्शि॒न्निति॑ विऽरप्शिन्। उ॒दा॒दायेत्यु॑त्ऽआ॒दाय॑। पृ॒थि॒वीम्। जी॒वदा॑नु॒मिति॑ जी॒वऽदा॑नुम्। याम्। ऐर॑यन्। च॒न्द्रम॑सि। स्व॒धाभिः॑। ताम्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। धीरा॑सः। अ॒नु॒दिश्येत्य॑नु॒ऽदिश्य॑। य॒ज॒न्ते॒। प्रोक्ष॑णी॒रिति॑ प्र॒ऽउक्ष॑णीः। आ। सा॒द॒य॒। द्वि॒ष॒तः। व॒धः अ॒सि॒ ॥२८॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरा क्रूरस्य विसृपो विरप्शिन्नुदादाय पृथिवीञ्जीवदानुम् । यामैरयँश्चन्द्रमसि स्वधाभिस्तामु धीरासोऽअनुदिश्य यजन्ते । प्रोक्षणीरा सादय द्विषतो बधो सि ॥
स्वर रहित पद पाठ
पुरा। क्रूरस्य। विसृप इति विऽसृपः। विरप्शिन्निति विऽरप्शिन्। उदादायेत्युत्ऽआदाय। पृथिवीम्। जीवदानुमिति जीवऽदानुम्। याम्। ऐरयन्। चन्द्रमसि। स्वधाभिः। ताम्। ऊँ इत्यूँ। धीरासः। अनुदिश्येत्यनुऽदिश्य। यजन्ते। प्रोक्षणीरिति प्रऽउक्षणीः। आ। सादय। द्विषतः। वधः असि॥२८॥
विषय - वे दोष कैसे निवारण करने और वहाँ मनुष्यों को फिर क्या करना चाहिए। इस विषय का उपदेश किया है॥
भाषार्थ -
हे (विरप्शिन्) महान् गुणों से युक्त जगदीश्वर! आपने ही (याम्) जिस (स्वधाभिः) अन्नों से युक्त (जीवदानुम्) प्राणियों के जीवन के लिये वस्तुओं को देने वाली (पृथिवीम्) विस्तृत प्रजा से युक्त पृथिवी को (उदादाय) सब ओर से ग्रहण करके (चन्द्रमसि) चन्द्रलोक के समीप स्थापित किया है, इसलिये (धीरासः) मेधावी लोग (ताम्) इस उक्त लक्षणों वाली (पृथिवीम्) विस्तृत प्रजा से युक्त पृथिवी को प्राप्त करके आपको (अनुदिश्य) प्राप्त करने के लिये सेना एवं शस्त्रों को (उदादाय) सब ओर से ग्रहण करके (विसृपः) योद्धाओं की विविध चेष्टाओं के स्थल (क्रूरस्य) एवं शत्रुओं के अंगों को काटने वाले युद्ध में शत्रुओं को जीत कर राज्य को (ऐरयन्) प्राप्त करते है।
औरजैसे इस प्रकार करके (धीरासः) मेधावी लोग [यजन्ते] पूजा एवं संगति करते हैं तथा (पुरा) पहले (प्रोक्षणीः) उत्तमरीति से सेचन करने वाली क्रियाओं वा पात्रों को प्राप्त करते हैं वैसे ही हे (विरप्शिन्) महान् ऐश्वर्य के इच्छुक मनुष्य! तू भी (उ) विचारपूर्वक उस प्रोक्षणी को प्राप्त करके ईश्वर की पूजा एवं संग कर और (प्रोक्षणीः) उत्तम रीति से सेचन करने वाली क्रियाओं वा पात्रों को (आसादय) सब ओर स्थापित कर, और जिस प्रकार से (द्विषतः) शत्रु का (वधः) नाश (असि) हो वैसे उसका नाश करके सदा आनन्द में रह॥१।२८॥
भावार्थ -
जिस ईश्वर ने अन्तरिक्ष में पृथिवियाँ, उनके समीप चन्द्र, और उनके समीप पृथिवियाँ, एक दूसरे के समीप नक्षत्र, सबके मध्य में सूर्यलोक तथा इनमें विविध प्रजा को रच कर स्थापित किया है। वहाँ रहने वाले सब मनुष्यों को उसी ईश्वर की उपासना करना योग्य है।
जब तक मनुष्य बल और पुरुषार्थ से युक्त होकर शत्रुओं को नहीं जीतते हैं तब तक उन्हें स्थिर राज्य-सुख प्राप्त नहीं हो सकता। युद्ध और बल (सेना) के बिना शत्रु कभी नहीं डरते। विद्या, न्याय और विनय के बिना प्रजा का पालन नहीं हो सकता।
इसलियेसबको जितेन्द्रिय होकर उक्त राज्य को प्राप्त करके सबको सुख देने का लक्ष्य बना कर नित्य प्रयत्न करना चाहिये॥१।२८॥
भाष्यसार -
१.ईश्वर--महान् गुणों से विशिष्ट होने से ईश्वर का नाम ‘विरप्शी’ है। महान् ऐश्वर्य का इच्छुक मनुष्य भी ‘विरप्शी’ कहलाता है। ईश्वर ने ही चन्द्रलोक के समीप पृथिवी को स्थापित किया है।
२. पृथिवी--अन्नों से युक्त, प्राणियों के जीवन के लिये सब वस्तुओं को देने वाली है। विस्तृत प्रजा से युक्त है। ३. मनुष्यों का कर्त्तव्य-- इस पृथिवी पर सेना और शस्त्रों के बल से युद्ध में मेधावी लोग शत्रुओं को जीत कर राज्य प्राप्त करें।
४. यज्ञ से दोषों का निवारण--महान् ऐश्वर्य के इच्छुक मनुष्य ईश्वर का यजन करें। यज्ञ से सब दोषों एवं शत्रुओं का निवारण करके नित्य आनन्द में रहें॥
विशेष -
परमेष्ठी प्रजापतिः। यज्ञः = स्पष्टतम्।। विराड् ब्राह्मी पंक्तिः। पञ्चमः॥
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