यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 3
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - भुरिक् जगती,
स्वरः - निषादः
5
वसोः॑ प॒वित्र॑मसि श॒तधा॑रं॒ वसोः॑ प॒वित्र॑मसि स॒हस्र॑धारम्। दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता पु॑नातु॒ वसोः॑ प॒वित्रे॑ण श॒तधा॑रेण सु॒प्वा काम॑धुक्षः॥३॥
स्वर सहित पद पाठवसोः॑। प॒वित्र॑म्। अ॒सि॒। श॒तधा॑र॒मिति॑ श॒तऽधा॑रम्। वसोः॑। प॒वित्र॑म्। अ॒सि॒। स॒हस्र॑धार॒मिति॑ स॒हस्र॑ऽधारम्। दे॒वः। त्वाः॒। स॒वि॒ता। पु॒ना॒तु॒। वसोः॑। प॒वित्रे॑ण। श॒तधा॑रे॒णेति॑ श॒तऽधा॑रेण। सु॒प्वेति॑ सु॒ऽप्वा᳕। काम्। अ॒धु॒क्षः॒ ॥३॥
स्वर रहित मन्त्र
वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम् । देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः ॥
स्वर रहित पद पाठ
वसोः। पवित्रं। असि। शतधारमिति शतऽधारम्। वसोः। पवित्रं। असि। सहस्रधारमिति सहस्रऽधारम्। देवः। त्वाः। सविता। पुनातु। वसोः। पवित्रेण। शतधारेणेति शतऽधारेण। सुप्वेति सुऽप्वा। काम्। अधुक्षः॥३॥
विषय - वह यज्ञ कैसा है, यह फिर उपदेश किया है।।
भाषार्थ -
जो (वसोः) यज्ञ (शतधारम्) शतधा (पवित्रम्) शुद्धिकारक (असि) है अर्थात् बहुविध असंख्य विश्वों को धारण करने वाला, शुद्धिकारक कर्म है, (सहस्रधारम्) बहुविध ब्रह्माण्ड को धारण करने वाला, (पवित्रम्) सुखदायक एवं शुद्धि का निमित्त (असि) है, (त्वा) उस यज्ञ को (सविता) सब वसु अर्थात् अग्नि, पृथिवी आदि तैंतीस देवों का उत्पादक (देवः) स्वयं प्रकाशस्वरूप परमेश्वर (पुनातु) पवित्र करे।
हे जगदीश्वर! आप हम लोगों से सेवित (पवित्रेण) पवित्रताकारक वेद-विज्ञान-कर्म से (शतधारेण) बहुत विद्याओं के धारक परमेश्वर वा वेद से (सुप्वा) अच्छी प्रकार पवित्र करने वाले वा पवित्रता के हेतु यज्ञ से हमें (पुनातु) पवित्र कीजिये।
हे विद्वान् अथवा जिज्ञासु मनुष्य! तू (काम्) कौन-कौन सी वाणी को (अधुक्षः) दुहना चाहता है? ॥ १। ३॥
भावार्थ -
जो मनुष्य पूर्वोक्त यज्ञ का अनुष्ठान करके पवित्र होते हैं, उनको परमेश्वर बहुत प्रकार के विज्ञान से युक्त करके उन्हें अनेक प्रकार का सुख प्रदान करता है। परन्तुजो कर्मशील परोपकारी हैं वे सुख को प्राप्त करते हैं; दूसरे आलसी लोग नहीं।
इस मन्त्र में ‘कामधुक्षः’इन पदों से वाणी के विषय में प्रश्न है॥ १। ३॥
भाष्यसार -
१. यज्ञ-- असंख्य प्रकार के विश्व को धारणाकरने वाला यज्ञ शुद्धिकारक एवं सुखदायक कर्म है।
२. ईश्वर-- वसु अर्थात् अग्नि, पृथिवी आदि तैंतीस देवों को उत्पन्न करने वाला होने से यहाँ ईश्वर को ‘सविता’तथा स्वयं प्रकाशस्वरूप होने से ‘देव’कहा गया है।
्अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवासस्थान होने से आठ वसु। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा-- ये ग्यारह रुद्र इसलिए कहाते हैं कि जब शरीर को छोड़ते हैं तब रोदन कराने वाले होते हैं। संवत्सर के बारह महीने बारह आदित्य इसलिए हैं कि ये सबकी आयु को लेते जाते हैं।बिजली का नाम ‘इन्द्र’ इस हेतु से है कि परम ऐश्वर्य का हेतु है। यज्ञ को प्रजापति कहने का कारण यह है कि जिससे वायु, वृष्टि-जल, औषधि की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना प्रकार की शिल्पविद्या से प्रजा का पालन होता है। ये तैंतीस पूर्वोक्त गुणों के योग से ‘देव’कहाते हैं॥ [वसु=८, रुद्र=११, आदित्य= १२, इन्द्र (विद्युत्)=१ प्रजापति (यज्ञ)=१, सर्व योग=३३]॥
४. ईश्वर-प्रार्थना-- हे जगदीश्वर! आप पवित्रकारक वेद, विज्ञान तथा यज्ञ से हमें पवित्र कीजिये।
५. प्रश्न-- हे जिज्ञासु विद्वान् पुरुष! तू किस वाणी को दुहना चाहता है अर्थात् किस वाणी को प्राप्त करके तृप्त होना चाहता है, ज्ञान से भरपूर होना चाहता है?॥३॥
विशेष -
परमेष्ठी प्रजापतिः।सविता =ईश्वरः। भुरिग्जगती। निषादः।।
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