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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 11
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - द्यावापृथिवी देवते छन्दः - ब्राह्मी बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    उप॑हूतो॒ द्यौष्पि॒तोप॒ मां द्यौष्पि॒ता ह्व॑यताम॒ग्निराग्नी॑ध्रा॒त् स्वाहा॑। दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। प्रति॑ गृह्णाम्य॒ग्नेष्ट्वा॒स्येन॒ प्राश्ना॑मि॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑हूत॒ इत्युप॑ऽहूतः। द्यौः। पि॒ता। उप॑। माम्। द्यौः। पि॒ता। ह्व॒य॒ता॒म्। अ॒ग्निः। आग्नी॑ध्रात्। स्वाहा॑। दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। प्रति॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। अ॒ग्नेः। त्वा॒। आ॒स्ये᳖न। प्र। अ॒श्ना॒मि॒ ॥११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपहूतो द्यौष्पितोप माम्द्यौष्पिता ह्वयतामग्निराग्नीध्रात्स्वाहा । देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे श्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । प्रति गृह्णाम्यग्नेष्ट्वास्येन प्राश्नामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपहूत इत्युपऽहूतः। द्यौः। पिता। उप। माम्। द्यौः। पिता। ह्वयताम्। अग्निः। आग्नीध्रात्। स्वाहा। देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। प्रति। गृह्णामि। अग्नेः। त्वा। आस्येन। प्र। अश्नामि॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 11
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    भाषार्थ -

    मेरे द्वारा (द्यौः) प्रकाशस्वरूप (पिता) सब का पालन करने वाला परमेश्वर (उपहूतः) उपासना किया हुआ (माम्) सुखोपभोग करने वाले मुझको(उपह्वयताम्) अपनी शरण में लेता है।

    इसी प्रकार मेरे द्वारा (द्यौः) प्रकाशमय (पिता) पालन करने वाला सूर्यलोक (उपहूतः) सेवन किया हुआ (माम्) मुझ सुख उपभोक्ता का ज्ञान प्रदान करताह है।

    जो (अग्निः) जाठर-अग्नि=(स्वाहा) जिसमें होम किया हुआ ईश्वर ने सुखकारी बतलाया है अथवा खाए हुए अन्न को (आग्नीध्रात्) अन्नाशय से पकाता है, जो (देस्य) आनन्ददायक (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्न करने वाले ईश्वर के (प्रसवे) पैदा किए इस जगत् में विद्यमान है [त्वा] उस भोग (भक्ष्य-पदार्थ) को मैं (अश्विनोः) प्राण और अपान की (बाहुभ्याम्) आकर्षण और धारण शक्ति के द्वारा तथा (पूष्णः) पुष्टिकारक समान वायु के (हस्ताभ्याम्) शोधन और शरीर के अंग-अंग में पहुंचाने वाले रूप गुणों से (प्रतिगृह्णामि) नित्य ग्रहण करता हूँ।

    और ग्रहण करके प्रज्वलित (अग्नेः) भौतिक पाचक अग्नि में पकाकर [त्वा] उस भक्ष्य-पदार्थ को (आस्येन) मुख से (प्र+अश्नामि) अच्छे प्रकार खाता हूँ॥ 

    भावार्थ -

    इस मन्त्र में श्लेष अलंकार है॥ मनुष्यों को अपनी आत्मा की शुद्धि के लिय अनन्त विद्या के प्रकाशक परमेश्वर की उपासना नित्य करनी चाहिए और विद्या की सिद्धि के लिये—

     आँखों से भली प्रकार देखकर, जाठराग्नि को प्रदीप्त कर शुद्ध एवं परिमित भोजन नित्य करें।

    ईश्वर के द्वारा जगत् में उत्पन्न किये पदार्थों से जो सब भोग सिद्ध होते हैं उनका विद्या और धर्म से युक्त व्यवहार से स्वयं उपभोग करें और करावें।

    पूर्व मन्त्र के द्वारा पृथिवी पर विद्या से प्राप्त होने वाले, मान के हेतु पदार्थ कहे हैं उनका उपभोग धर्म और युक्तिपूर्वक सब जनों को करना उचित है। यह इस मन्त्र के द्वारा प्रतिपादित किया है॥२।११॥

    भाष्यसार -

    १. ईश्वर--अनन्त विद्या को प्रकाशित करने वाला, सब का पालक, उपासना से उपासक को स्वीकार करने वाला है।

    . सूर्य--प्रकाशमय और पालन का हेतु है। सुख के उपभोक्त को सूर्य, विद्या की प्राप्ति के लिए मानो बुला रहा है।

    ३. अग्नि--ईश्वर के उत्पन्न किये इस संसार में विद्यमान है। जाठराग्नि के रूप में विद्यमान अग्नि युक्त अन्न को अन्नाशय में पकाता है।

     ४. भोग--भक्ष्यपदार्थ प्राण और अपान की धारणा एवं आकर्षण रूप शक्तियों से तथा पुष्टिकारक समान वायु के शोधन एवं सर्वांगप्राप्ति रूप गुणों के कारण ग्रहण किये जातेहैं तत्पश्चात् उन्हें अग्नि में पकाकर उनका उपभोग किया जाता है॥

    विशेष -

    परमेष्ठी प्रजापतिः। द्यावापृथिवी =प्रकाशस्वरूप ईश्वरः, पृथिवी च॥  मध्यमः॥

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