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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 13
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - विराट् जगती, स्वरः - निषादः
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    मनो॑ जू॒तिर्जु॑षता॒माज्य॑स्य॒ बृह॒स्पति॑र्य॒ज्ञमि॒मं त॑नो॒त्वरि॑ष्टं य॒ज्ञꣳ समि॒मं द॑धातु। विश्वे॑ दे॒वास॑ऽइ॒ह मा॑दयन्ता॒मो३म्प्रति॑ष्ठ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मनः॑। जू॒तिः। जु॒ष॒ता॒म्। आज्य॑स्य। बृह॒स्पतिः॑। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। त॒नो॒तु॒। अरि॑ष्टम्। य॒ज्ञम्। सम्। इ॒मम्। द॒धा॒तु॒। विश्वे॑। दे॒वासः॑। इ॒ह। मा॒द॒य॒न्ता॒म्। ओ३म्। प्र। ति॒ष्ठ॒ ॥१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमन्तनोत्वरिष्टँ यज्ञँ समिमन्दधातु । विश्वे देवासऽइह मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मनः। जूतिः। जुषताम्। आज्यस्य। बृहस्पतिः। यज्ञम्। इमम्। तनोतु। अरिष्टम्। यज्ञम्। सम्। इमम्। दधातु। विश्वे। देवासः। इह। मादयन्ताम्। ओ३म्। प्र। तिष्ठ॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 13
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    भाषार्थ -

    मेरा (जूतिः) अत्यन्त वेग से कर्मों  में व्यापत होने वाला (मनः) मननशील, ज्ञानप्राप्ति का साधन मन (आज्यस्य) यज्ञ-सामग्री का (जुषताम्) प्रीतिपूर्वक सेवन करे।

    (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े प्रकृति और आकाश आदि का रक्षक जगदीश्वर जिस (इमम्) प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप सुखभोग के नियम (यज्ञम्) संसार का जो यज्ञ (अरिष्टम्) नाश-रहित है, (तनोतु) उसका विस्तार करे वा (सम्+दधातु) एकता के भाव से धारण करे।

    हे (विश्वेदेवासः!) सब विद्वानो! (इमम्) प्रत्यक्ष जो ज्ञान-यज्ञ है वह (अरिष्टम्) विनाश-रहित तथा (यज्ञम्) हमारे द्वारा अनुष्ठान करने योग्य है। इस प्रकार के विनाश-रहित एवं हिंसा-शून्य दोनों यज्ञों का विस्तार और एकीभाव से धारण करके (इह) इस संसार में अथवा अपने हृदय में (मादयन्ताम्) सदा आनन्दित रहो।

     हे (ओ३म्!) ओंकार-वाच्य (बृहस्पते) ईश्वर नामक यज्ञ वा वेदविद्या! तू (इह) इस संसार वा मेरे हृदय में (प्रतिष्ठ) प्रतिष्ठित हो एवं कृपा करके इस यज्ञ वा वेदविद्या को स्थापित कीजिए॥२।१३॥

    भावार्थ -

    ईश्वर आज्ञा देता है--हे मनुष्यो! तुम्हारा मन शुभ कर्मों को ही प्राप्त हो।

    मैं इस संसार में जिस यज्ञ को करने के लिये आज्ञा देता हूँ उसी का अनुष्ठान करके स्वयं सुखी रहो तथा अन्यों को भी सुखी करो।

    ओ३म्यह परमेश्वर का ही नाम है। जैसे पिता और पुत्र का प्रिय सम्बन्ध है वैसे ही ईश्वर के साथ ओंकारका सम्बन्ध है।

    शुभ कर्म के बिना किसी की भी प्रतिष्ठा (सम्मान) नहीं हो सकती, इसलिये सब मनुष्य सब काल में अधर्म को छोड़ कर वे धर्म-कार्यों का ही सेवन करें, जिससे निश्चय ही अविद्या अन्धकार की निवृत्ति होकर विद्या का सूर्य चमक सके।

    बारहवें मन्त्र के द्वारा जिस यज्ञ का उपदेश किया गया है उसके अनुष्ठान से सबको प्रतिष्ठा और सुख प्राप्त होते हैं, यह इस मन्त्र के द्वारा प्रकाशित किया गया है॥२॥१३॥

    भाष्यसार -

    यज्ञ--ज्ञान का साधन मन है, जो वेगवान् होने से कर्मों को शीघ्र व्याप्त कर लेता है, वहमन यज्ञादि शुभ कर्मों को प्राप्त करे। संसार एक यज्ञ है जो सब प्रकार के सुख भोगों को हेतु एवं हिंसारहित है। प्रकृति एवं आकाश आदि के पालक बृहस्पति जगदीश्वर ने इस संसार रूप यज्ञ का विस्तार किया है वही एक मात्र इसकोधारण कर रहा है। विज्ञान भी एक यज्ञ है जो हिंसा से रहित है। विद्वान् लोग संसार यज्ञ का संसार में विस्तार करे तथा विज्ञान यज्ञ को हृदय में धारण करके सदा प्रसन्न रहते हैं।

    ईश्वर प्रार्थना--हे ईश्वर! आप कृपा करके संसार में यज्ञ को प्रतिष्ठित कीजिए तथा वेदविद्या को हृदय में प्रकाशित कीजिए॥२।१३॥

    विशेष -

    परमेष्ठी प्रजापतिः। बृहस्पतिः=ईश्वरः॥  विराड् जगती।  निषादः॥

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