यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 2
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - स्वराट् जगती,
स्वरः - निषादः
6
अदि॑त्यै॒ व्युन्द॑नमसि॒ विष्णो॑ स्तु॒पोऽस्यूर्ण॑म्रदसं त्वा स्तृणामि स्वास॒स्थां दे॒वेभ्यो॒ भुव॑पतये॒ स्वाहा॒ भुवन॑पतये॒ स्वाहा॑ भू॒तानां॒ पत॑ये॒ स्वाहा॑॥२॥
स्वर सहित पद पाठअदि॑त्यै। व्युन्द॑न॒मिति॑। वि॒ऽउन्द॑नम्। अ॒सि॒। विष्णोः॑। स्तु॒पः। अ॒सि॒। ऊर्ण॑म्रदस॒मित्यूर्ण॑ऽम्रदसम्। त्वा॒। स्तृ॒णा॒मि॒। स्वा॒स॒स्थामिति॑ सुऽआ॒स॒स्थाम्। दे॒वेभ्यः॑। भुवप॑तय॒ इति॒ भुव॑ऽपतये। स्वाहा॑। भुव॑नपतय॒ इति॒ भुव॑नऽपतये। स्वाहा॑। भू॒ताना॑म्। पत॑ये स्वाहा॑ ॥२॥
स्वर रहित मन्त्र
अदित्यै व्युन्दनमसि विष्णो स्तुपोऽस्यूर्णम्रदसन्त्वा स्तृणामि स्वासस्थां देवेभ्यो भुवपतये स्वाहा भुवनपतये स्वाहा भूतानांम्पतये स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
अदित्यै। व्युन्दनमिति। विऽउन्दनम्। असि। विष्णोः। स्तुपः। असि। ऊर्णम्रदसमित्यूर्णऽम्रदसम्। त्वा। स्तृणामि। स्वासस्थामिति सुऽआसस्थाम्। देवेभ्यः। भुवपतय इति भुवऽपतये। स्वाहा। भुवनपतय इति भुवनऽपतये। स्वाहा। भूतानाम्। पतये स्वाहा॥२॥
विषय - इस प्रकार किया हुआ यज्ञ क्या सिद्ध करने वाला होता है, यह उपदेश किया है।
भाषार्थ -
जिससे यह विष्णु अर्थात् यज्ञ [अदित्यै] पृथिवी के (व्युन्दनम्) विविध औषधि आदि पदार्थों का सींचने वाला (असि) है, इसलिए मैं उसका अनुष्ठान करता हूँ। इस (विष्णोः) यज्ञ के (स्तुपः) शिखा रूप ऊखल नामक पत्थर जो सिद्ध करने वाला है, इसलिए मैं (ऊर्णम्रदसम्) धान्य के छिलकों को दूर करने वाले पाषाणमय [त्वा] उस ऊखल को (स्तृणामि) ढकता हूँ।
वेदि (देवेभ्यः) विद्वानों तथा दिव्य सुखों की प्राप्ति के लिए हितकारी (असि) है, इसलिए मैं (स्वासस्थाम्) होम किए हुए पदार्थोंको अच्छी प्रकार अपने में स्थित करने वाली वेदि को बनाता हूँ। किस प्रयोजन के लिए? यहाँ ईश्वर अपदेश करता है—
जिससे यह संसार, लोक-लोकान्तर, एवं भूतों का पति ईश्वर प्रसन्न होता है, अथवा भौतिक अग्नि सुखों को सिद्ध करने वाला होता है, इसलिए उस (भुवपतये) भूतों के उत्पत्ति स्थान संसार के पति जगदीश्वर की प्राप्ति के लिए अथवा आहवनीय नामक अग्नि के लिए (स्वाहा) सत्यभाषण युक्त वाणी का प्रयोग करें। (भुवनपतये) सब लोकों के पालक ईश्वर अथवा पालन के निमित्त भौतिक अग्नि की सिद्धि के लिए (स्वाहा) सत्य भाषण युक्त वाणी बोलें (भुतानां च पतये) उत्पन्न मात्र सब वस्तुओं के स्वामी ईश्वर अथवा ऐश्वर्य के हेतु भौतिक अग्नि की सिद्धि के लिए (स्वाहा) सत्यभाषण युक्त वाणी का प्रयोग करना होता है, उस प्रयोजन के लिए वेदि को रचता हूँ॥ 2।2॥
भावार्थ -
ईश्वर सब मनुष्यों को यह उपदेश करता है कि तुम वेदि आदि यज्ञ के साधनों को सिद्ध करके सब प्राणियों के सुख के लिए और परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए अच्छी प्रकार क्रिया-यज्ञ का अनुष्ठान करो।
सदा सत्य ही बोलो।
जैसे मैं न्याय से सब विश्व का पालन करता हूँ, वैसे तुम लोग भी पक्षपात छोड़ कर सबकी रक्षा से सुख को सिद्ध करो॥२।२॥
भाष्यसार -
ईश्वर सब मनुष्यों को यह उपदेश करता है कि तुम वेदि आदि यज्ञ के साधनों को सिद्ध करके सब प्राणियों के सुख के लिए और परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए अच्छी प्रकार क्रिया-यज्ञ का अनुष्ठान करो।
सदा सत्य ही बोलो।
जैसे मैं न्याय से सब विश्व का पालन करता हूँ, वैसे तुम लोग भी पक्षपात छोड़ कर सबकी रक्षा से सुख को सिद्ध करो॥२।२॥
भाष्यसार-- १. यज्ञ-- यह पृथिवी की विविध औषधियों का क्लेदन करता है। सर्वत्र व्याप्त होने से विष्णु है। उलूखल इसका साधक है। यहाँ उलूखल को यज्ञ की शिखा कहा गया है। जिसमें धान्यों के तुषों का मर्दन किया जाता है।
२. यज्ञ वेदि-- यह विद्वानों और दिव्य सुखों की प्राप्ति के लिए होती है। होम किया हुआ पदार्थ इसमें अच्छी प्रकार स्थित होता है। इससे ईश्वर प्रसन्न होता है। इसमें स्थित भौतिक अग्नि सुखों को सिद्ध करने वाला होता है।
३. ईश्वर-- संसार में उत्पन्न होने वाले भूतों का पति होने से ईश्वर का नाम ‘भुवपति’है। भूतों का रक्षक होने से आहवनीय अग्नि को भी ‘भुवपति’ कहते हैं। सब लोकों का रक्षक होने से ईश्वर का नाम ‘भुवनपति’है। सब लोकों का पालन-हेतु होने से भौतिक अग्नि भी भुवनपति है। उत्पन्नमात्र वस्तुओं का स्वामी होने से ईश्वर को ‘भूतानां पतिः’कहा है। ऐश्वर्य का हेतु होने से भौतिक अग्नि भी‘भूतानां पतिः’है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए सत्यभाषण करें।
विशेष -
परमेष्ठी प्रजापतिः। यज्ञः=स्पष्टम्। स्वराड्जगतीः। निषादः।
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