यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 6
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - विष्णुः सर्वस्य
छन्दः - ब्राह्मी त्रिष्टुप्,निचृत् त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
7
घृ॒ताच्य॑सि जु॒हूर्नाम्ना॒ सेदं प्रि॒येण॒ धाम्ना॑ प्रि॒यꣳ सद॒ऽआसी॑द घृ॒ताच्य॑स्युप॒भृन्नाम्ना॒ सेदं प्रि॒येण॒ धाम्ना॑ प्रि॒यꣳ सद॒ऽआसी॑द घृ॒ताच्य॑सि ध्रु॒वा नाम्ना॒ सेदं प्रि॒येण॒ धाम्ना॑ प्रि॒यꣳ सद॒ऽआसी॑द प्रि॒येण॒ धाम्ना॑ प्रि॒यꣳ सदऽआसी॑द। ध्रु॒वाऽअ॑सदन्नृ॒तस्य॒ योनौ॒ ता वि॑ष्णो पाहि पा॒हि य॒ज्ञं पा॒हि य॒ज्ञप॑तिं पा॒हि मां य॑ज्ञ॒न्यम्॥६॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒ताची॑। अ॒सि॒। जु॒हूः। नाम्ना॑। सा। इ॒दम्। प्रि॒येण॑। धाम्ना॑। प्रि॒यम्। सदः॑। आ। सी॒द॒। घृ॒ताची॑। अ॒सि॒। उ॒प॒भृदित्यु॑प॒ऽभृत्। नाम्ना॑। सा। इ॒दम्। प्रि॒येण॑। धाम्ना॑। प्रि॒यम्। सदः॑। आ। सी॒द॒। घृ॒ताची॑। अ॒सि॒। ध्रु॒वा। नाम्ना॑। सा। इ॒दम्। प्रि॒येण॑। धाम्ना॑। प्रि॒यम्। सदः॑। आ। सी॒द॒। प्रि॒येण॑। धाम्ना॑। प्रि॒यम्। सदः॑। आ। सी॒द॒। ध्रु॒वा। अ॒स॒द॒न्। ऋ॒तस्य॑। योनौ॑। ता। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। पा॒हि। पा॒हि। य॒ज्ञम्। पा॒हि। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। पा॒हि। माम्। य॒ज्ञ॒न्य᳖मिति॑ यज्ञ॒ऽन्य᳖म् ॥६॥
स्वर रहित मन्त्र
घृताच्यसि जुहूर्नाम्ना सेदम्प्रियेण धाम्ना प्रियँ सदऽआसीद घृताच्यस्युपभृन्नाम्ना सेदम्प्रियेण धाम्ना प्रियँ सदऽआसीद घृताच्यसि धु्रवा नाम्ना सेदम्प्रियेण धाम्ना प्रियँ सदऽआसीद प्रियेण धाम्ना प्रियँ सदऽआ सीद । धु्रवाऽअसदन्नृतस्य योनौ ता विष्णो पाहि पाहि यज्ञम्पाहि यज्ञपतिम्पाहि माँ यज्ञन्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
घृताची। असि। जुहूः। नाम्ना। सा। इदम्। प्रियेण। धाम्ना। प्रियम्। सदः। आ। सीद। घृताची। असि। उपभृदित्युपऽभृत्। नाम्ना। सा। इदम्। प्रियेण। धाम्ना। प्रियम्। सदः। आ। सीद। घृताची। असि। ध्रुवा। नाम्ना। सा। इदम्। प्रियेण। धाम्ना। प्रियम्। सदः। आ। सीद। प्रियेण। धाम्ना। प्रियम्। सदः। आ। सीद। ध्रुवा। असदन्। ऋतस्य। योनौ। ता। विष्णोऽइति विष्णो। पाहि। पाहि। यज्ञम्। पाहि। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। पाहि। माम्। यज्ञन्यमिति यज्ञऽन्यम्॥६॥
विषय - उक्त यज्ञ से क्या-क्या प्रिय सुख सिद्ध होता है,यह उपदेश किया जाता है।
भाषार्थ -
जो (जुहूः) हवि देने वाली तथा सुख लाने वाली स्रुक् (नाम्ना) नाम से प्रसिद्ध (घृताची) आदान-क्रिया से घृत को प्राप्त कराने वाली घृताची (असि) होती है, (सा) वह पूर्वोक्त यज्ञ में प्रयुक्त की हुई (प्रियेण) सुखों से तृप्त करने वाले=कामना-योग्य (धाम्ना) स्थान से युक्त (इदम्) इस (प्रियम्) प्यारे (सदः) सर्व-सुखदायक घर को (आ+सीद) अब ओर से प्राप्त कराती है।
जो (उपभृत्) समीप गए हुए को हस्त-क्रिया से भरने वाली (नाम्ना) उपभृत् नाम से प्रसिद्ध (घृताची) जो होम-क्रिया द्वारा जल को प्राप्त कराने वाली घृताची (असि) है, (सा) वह यज्ञ में प्रयुक्त की हुई (प्रियेण) प्रीतिकारक (धाम्ना) स्थान से युक्त (इदम्) इस औषध आदि (प्रियम्) आरोग्य से सुखदायक (सदः) दुःखों के नाशक औषध-सेवन और पश्याचरण को (आ+सीद) सब ओर से प्राप्त कराती है।
जो (ध्रुवा) स्थिर सुखों को प्राप्त कराने वाली विद्या (नाम्ना) ध्रुवा नाम से प्रसिद्ध (घृताची) सुनियमाचरण रूप क्रिया से आयु को प्राप्त कराने वाली घृताची (असि) है, (सा) वह अच्छे प्रकार स्थापित की हुई (प्रियेण) प्रीतिकारक (धाम्ना) स्थिति के हेतु (इदम्) इस जीवन के लिए (प्रियम्) आनन्द-दायक (सदः) वस्तु को (आ+सीद) सब ओर से प्राप्त कराती है।
जिस क्रिया के द्वारा (प्रियेण) प्रीति के
साधक (धाम्ना) हृदय से (इदम्) इस (प्रियम्) प्रीतिकारक (सदः) जिससे जाना जाता है उस ज्ञान को (आ+सीद) सब ओर से प्राप्त कराता है, (सा) वह क्रिया सबको नित्य सिद्ध करनी चाहिए।
हे (विष्णो!) व्यापक परमेश्वर! जैसै ये (ऋतस्य) सर्वथा शुद्ध सत्य के हेतु (योनौ) यज्ञ में (ध्रुवा) स्थिर पदार्थ (असदन्) होवें, वैसे ही इनकी सदा (पाहि) रक्षा कर तथा कृपा करके (यज्ञम्) पूर्वोक्त तीन प्रकार के यज्ञ की (पाहि) रक्षा कर, (यज्ञन्यम्) यज्ञ के नायक (यज्ञपतिम्) यज्ञ के पालक यजमान की (पाहि) रक्षा कर, यज्ञ के नायक (माम्) मुझ होता, अध्वर्य्यु, उद्गाता और ब्रह्मा की (पाहि) रक्षा कर॥२।६॥
भावार्थ -
जो यज्ञ पूर्वोक्त मन्त्र के अनुसार वसु, रुद्र और आदित्यों से सिद्ध होता है वह वायु और जल की शुद्धि के द्वारा सब स्थानों को, सब वस्तुओ को प्रिय तथा निश्चल सुख के साधक और ज्ञानवर्द्धक बनाता है।
उनकी वृद्धि और रक्षा के लिये सब मनुष्य सर्वव्यापक ईश्वर की प्रार्थना और उत्तम पुरुषार्थ किया करें॥२।६॥
भाष्यसार -
१. यज्ञ से प्रिय सुखों की सिद्धि-- यज्ञ सुख को देने वाला है। यज्ञ में दी हुई घृताहुति सुखों से तृप्त करने वाले, कामना करने योग्य स्थान एवं घर को प्राप्त कराती है, दुःखनाशक औषधियों को प्राप्त कराती है, जीवन प्रदान करती है एवं आनन्दकारक वस्तुओं को प्राप्त कराती है। प्रीतिकारक ज्ञान को भी देने वाली है।
२.आहुति के भेद--जुहू=सुख को देने वाली। उपभृत्=समीपस्थ का धारण-पोषण करने वाली। ध्रुवा=स्थिर सुख देने वाली।
३. ईश्वर प्रार्थना- हे सर्वव्यापक ईश्वर! आप सत्य के हेतु यज्ञ में स्थिर वस्तुओं को प्राप्त कराने वाले हो, आप यज्ञ की सब वस्तुओं की रक्षा कीजिए। आप देवपूजा, संगातिकरण एवं दान रूप त्रिविध यज्ञ, यज्ञनायक, यजमान, होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा इनकी रक्षा कीजिए।
विशेष -
परमेष्ठी प्रजापतिः। विष्णुः=यज्ञः। षट्षष्टितमाक्षरपर्यन्तं ब्राह्मी त्रिष्टुप् अग्रे निचृत्त्रिष्टुप्। सर्वस्य धैवतः॥
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