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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 7
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    अग्ने॑ वाजजि॒द् वाजं॑ त्वा सरि॒ष्यन्तं॑ वाज॒जित॒ꣳ सम्मा॑र्ज्मि। नमो॑ दे॒वेभ्यः॑ स्व॒धा पि॒तृभ्यः॑ सु॒यमे॑ मे भूयास्तम्॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। वा॒ज॒जि॒दिति॑ वाजऽजित्। वाज॑म्। त्वा॒। स॒रि॒ष्यन्त॑म्। वा॒ज॒जित॒मिति॑ वाज॒ऽजित॑म्। सम्। मा॒र्ज्मि॒। नमः॑। दे॒वेभ्यः॑। स्व॒धा। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑। सु॒यमे॒ऽइति॑ सु॒ऽयमे॑। मे॒। भू॒या॒स्त॒म् ॥७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने वाजजिद्वाजन्त्वा सरिष्यन्तँ वाजजितँ सम्मार्ज्मि । नमो देवेभ्यः स्वधा पितृभ्यः सुयमे मे भूयास्तम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। वाजजिदिति वाजऽजित्। वाजम्। त्वा। सरिष्यन्तम्। वाजजितमिति वाजऽजितम्। सम्। मार्ज्मि। नमः। देवेभ्यः। स्वधा। पितृभ्य इति पितृऽभ्यः। सुयमेऽइति सुऽयमे। मे। भूयास्तम्॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 7
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    भाषार्थ -

    जिससे यह [अग्ने] भौतिक अग्नि (वाजजित्) अन्न को जीतने वाला होकर सब पदार्थों को शुद्ध करता है, इसलिए [त्वा] उस अग्नि को मैं (वाजम्) जो वेग वाला (सरिष्यनम्) सब पदार्थों को अन्तरिक्ष में पहुंचाने वाला और (वाजजितम्) युद्ध को जिताने वाला है, उसे (सम्+मार्ज्मि) अच्छे प्रकार शुद्ध करता हूँ।

    यज्ञ में प्रयुक्त जिस अग्नि से (देवेभ्यः) दिव्य सुखदायक पूर्वोक्त वसु आदिकों के लिए (नमः) अमृत रूप जल (पितृभ्यः) पालन करने वाली ऋतुओं के लिए (स्वधा) सुख को धारण करने वाले अमृत रूप अन्न (सु) सुन्दर रीति से (यमे) बल पराक्रम को देने वाले होते हैं, इसलिए ये दोनों अन्न, जल (में) मुझे भी बल-पराक्रम को देने वाले (भूयास्तम्) होवें॥२।७॥

    भावार्थ -

    ईश्वर उपदेश करता है कि--मनुष्यों को पूर्व मन्त्र में कथित अग्नि को यज्ञ का मुख्य साधन बनाना चाहिये।

    क्योंकि? अग्नि स्वभाव से ऊपर जाने वाला होन से सर्व पदार्थों को छेदक है।

    यान और अस्त्रों में अग्नि का विधिपूर्वक प्रयोग करने से वह शीघ्र गति और विजय का हेतु होकर,

    ऋतुओं के द्वारा दिव्य पदार्थों को सिद्ध करके शुद्ध एवं सुखदायक अन्न और जलों का साधक है, इस विज्ञान को समझना चाहिये॥२।७॥

    भाष्यसार -

    यज्ञ--भौतिक अग्नि यज्ञ का मुख्य साधन है। यज्ञ वाज अर्थात् अन्न को प्राप्त कराने वाला, एवं सब पदार्थों का शोधक है। यज्ञ का मुख्य साधक अग्नि वेगवान् अर्थात् शीघ्रगमन का हेतु युद्धों में यान और अस्त्रों मे प्रयोग करने से विजय का हेतु है। यज्ञ की अग्नि से अन्न और जल शुद्ध होते हैं जो बल और पराक्रम के देने वाले हैं।

    विशेष -

    परमेष्ठी प्रजापतिः। अग्निः= भौतिकोऽग्निः। बृहतीः।  मध्यमः॥

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