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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - पूषादयो देवताः छन्दः - भुरिगत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
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    विधृ॑तिं॒ नाभ्या॑ घृ॒तꣳरसे॑ना॒पो यू॒ष्णा मरी॑चीर्वि॒प्रुड्भि॑र्नीहा॒रमू॒ष्मणा॑ शी॒नं वस॑या॒ प्रुष्वा॒ऽ अश्रु॑भिर्ह्रा॒दुनी॑र्दू॒षीका॑भिर॒स्ना रक्षा॑सि चि॒त्राण्यङ्गै॒र्नक्ष॑त्राणि रू॒पेण॑ पृथि॒वीं त्व॒चा जु॑म्ब॒काय॒ स्वाहा॑॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विधृ॑ति॒मिति॒ विऽधृ॑तिम्। नाभ्या॑। घृ॒तम्। रसे॑न। अ॒पः। यू॒ष्णा। मरी॑चीः। वि॒प्रुड्भि॒रिति॑ वि॒प्रुट्ऽभिः॑। नी॒हा॒रम्। ऊ॒ष्मणा॑। शी॒नम्। वस॑या। प्रुष्वाः॑। अश्रु॑भि॒रित्यश्रु॑ऽभिः। ह्ना॒दु॒नीः॑। दू॒षीका॑भिः। अ॒स्ना। रक्षा॑ꣳसि। चि॒त्राणि॑। अङ्गैः॑। नक्ष॑त्राणि। रू॒पेण॑। पृ॒थि॒वीम्। त्व॒चा। जु॒म्ब॒काय॑। स्वाहा॑ ॥९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विधृतिन्नाभ्या धृतँ रसेनापो यूष्णा मरीचीर्विप्रुड्भिर्नीहारमूष्मणा शीनँवसया प्रुष्वाऽअश्रुभिह््र्रादुनीर्दूषीकाभिरस्ना रक्षाँसि चित्राण्यङ्गैर्नक्षत्राणि रूपेण पृथिवीन्त्वचा जुम्बकाय स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विधृतिमिति विऽधृतिम्। नाभ्या। घृतम्। रसेन। अपः। यूष्णा। मरीचीः। विप्रुड्भिरिति विप्रुट्ऽभिः। नीहारम्। ऊष्मणा। शीनम्। वसया। प्रुष्वाः। अश्रुभिरित्यश्रुऽभिः। ह्नादुनीः। दूषीकाभिः। अस्ना। रक्षाꣳसि। चित्राणि। अङ्गैः। नक्षत्राणि। रूपेण। पृथिवीम्। त्वचा। जुम्बकाय। स्वाहा॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 9
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    भाषार्थ -
    हे मनुष्यो ! तुम--(नाभ्या) शरीर के मध्य भाग नाभि से (विधृतिम्) विशेष धारण को तथा (घृतम्) घृत को, (रसेन) रस से (अपः) जलों को; (यूष्णा) क्वाथ रूप रस से, (मरीचीः) किरणों को; (विप्रुड्भिः) विशेष पूर्ण बिन्दुओं से (नीहारम्)प्रभात समय में चन्द्र के तुल्य कोहरे को, (उष्मणा) उष्णता से (शीनम्) जमा घृत को, (वसया) निवास के हेतु जीवन से(प्रुष्वा:) पोषक एवं सेचक क्रियाओं को, (अश्रुभिः) रोदन से (ह्रादुनीः) शब्दों की अव्यक्त उच्चारण क्रियाओं को, (दूषीकाभिः) विकारों से (चित्राणि) अद्भुत (रक्षांसि) पालन करने योग्य (अस्ना) रुधिरों को, (अङ्गैः) एवं (रूपेण) रूप से (नक्षत्राणि) नक्षत्रों को, (त्वचा) मांस, रुधिर, आदि को आच्छादक त्वचा इन्द्रिय से (पृथिवीम्) भूमि को जानकर (जुम्बकाय) अति वेगवान् दुर्व्यसनों केनिवारण के लिए (स्वाहा) सत्य वाणी का प्रयोग करो ॥ २५ । ९ ॥

    भावार्थ - सब मनुष्य धारणा आदि कर्मों से दुर्व्यसनों और रोगों का निवारण करके सत्यभाषण आदि धर्म के लक्षणों का विचार करके कार्यों में प्रवृत्त हों ॥ २५ ।९ ॥

    भाष्यसार - किससे क्या होता है--सब मनुष्य--नाभि से विशेष धारणा शक्ति एवं घृत को, रस से जलों को, क्वाथ रूप रस से किरणों को, बिन्दुओं से कोहरे को, उष्णता से जमे हुए घृत को, जीवन से पोषक एवं सेचक क्रियाओं को, रोदन से अव्यक्त उच्चारणों को, विकारों से अद्भुत एवं रक्षा के योग्य रुधिरों को, अंगों से एवं रूप से नक्षत्रों को, त्वचा इन्द्रिय से भूमि को जानें । इन धारणा आदि कर्मों से अति वेगवान् दुर्व्यसनों और रोगों का निवारण करें। सत्यभाषण आदि धर्म के लक्षणों का विचार करके कार्यों में प्रवृत्त हों ॥ २५ । ९ ॥

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