यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 6
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - योगी देवता
छन्दः - भूरिक् त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
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स्वाङ्कृ॑तोऽसि॒ विश्वे॑भ्यऽइन्द्रि॒येभ्यो॑ दि॒व्येभ्यः॒ पार्थि॑वेभ्यो॒ मन॑स्त्वाष्टु॒ स्वाहा॑ त्वा सुभव॒ सूर्या॑य दे॒वेभ्य॑स्त्वा मरीचि॒पेभ्य॑ऽउदा॒नाय॑ त्वा॥६॥
स्वर सहित पद पाठस्वाङ्कृ॑त॒ इति॒ स्वाम्ऽकृ॑तः। अ॒सि॒। विश्वे॑भ्यः। इ॒न्द्रि॒येभ्यः। दि॒व्येभ्यः॑। पार्थि॑वेभ्यः। मनः॑। त्वा॒। अ॒ष्टु॒। स्वाहा॑। त्वा॒। सु॒भ॒वेति॑ सुऽभव। सूर्य्या॑य। दे॒वेभ्यः॑। त्वा॒। म॒री॒चि॒पेभ्य॒ इति॑ मरीचि॒पेभ्यः॑। उ॒दा॒नायेत्यु॑त्ऽआ॒नाय॑। त्वा॒ ॥६॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वाङ्कृतोसि विश्वेभ्य इन्द्रियेभ्यो दिव्येभ्यः पार्थिवेभ्यो मनस्त्वाष्टु स्वाहा त्वा सुभव सूर्याय । देवेभ्यस्त्वा मरीचिपेभ्यः उदानाय त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
स्वाङ्कृत इति स्वाम्ऽकृतः। असि। विश्वेभ्यः। इन्द्रियेभ्यः। दिव्येभ्यः। पार्थिवेभ्यः। मनः। त्वा। अष्टु। स्वाहा। त्वा। सुभवेति सुऽभव। सूर्य्याय। देवेभ्यः। त्वा। मरीचिपेभ्य इति मरीचिपेभ्यः। उदानायेत्युत्ऽआनाय। त्वा॥६॥
विषय - फिर ईश्वर योगविद्या चाहने वाले के प्रति उपदेश करता है ॥
भाषार्थ -
हे (सुभव) उत्तम ऐश्वर्य वाले योगी पुरुष! तू (स्वाङ्कृतः) स्वयंसिद्ध तथा अनादिस्वरूप (असि) है, मैं (दिव्येभ्यः) निर्मल (विश्वेभ्यः) सब [इन्द्रियेभ्यः] कार्यों के अत्यन्त साधक इन्द्रियों के लिये (देवेभ्यः) श्रेष्ठ गुण वाले पदार्थों और (मरीचिपेभ्यः) किरणों के लिये (त्वा) तुझे स्वीकार करता हूँ, (पार्थिवेभ्यः) पृथिवीलोक में प्रसिद्ध पदार्थों के लिये (त्वा) तुझे स्वीकार करता हूँ, [सूर्याय] सूर्य के समान, योग का प्रकाश करने के लिये [उदानाय] उत्तम जीवन और बल की सिद्धि के लिये [त्वा] तुझे स्वीकार करता हूँ, जिससे (त्वा) तुझे (मनः) योगविज्ञान यथा (स्वाहा) सत्य भाषण रूप कर्म (अष्टु) प्राप्त हो ॥ ७ । ६ ॥
भावार्थ - जब तक मनुष्य श्रेष्ठ आचरण वाला नहीं होता तब तक ईश्वर भी उसे नहीं अपनाता, और जब तक यह नहीं अपनाता तब तक आत्मिक बल पूर्ण नहीं होता, जब तक आत्म-बल पूर्ण नहीं होता तब तक अत्यन्त सुख उत्पन्न नहीं होता ॥ ७ । ६ ।।
प्रमाणार्थ -
(मरीचिपेभ्यः) 'मरीचिपा', शब्द निघं० (१ । ५) में किरण-नामों में पढ़ा है । इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।१।२।२१-२४) में की गई है ।। ६ ।।
भाष्यसार - योगजिज्ञासु के प्रति ईश्वर का उपदेश--योगी के प्रति ईश्वर उपदेश करता है कि हे उत्तम ऐश्वर्य से सम्पन्न योगी पुरुष! तू स्वयंसिद्ध और अनादि स्वरूप है। तेरी कार्य को सिद्ध करने वाली सब इन्द्रियाँ निर्मल हैं, तू उत्तम गुण वाले सूर्यकिरण तथा पार्थिव पदार्थों का ज्ञाता है। श्रेष्ठाचारी होने से मैं तुझे स्वीकार करता हूँ--अपनाता हूँ। जैसे सूर्य सब पार्थिव पदार्थों को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार योगविद्या को संसार में प्रकाशित करने के लिये उत्कृष्ट जीवन तथा पूर्ण आत्मबल की सिद्धि के लिये तुझे स्वीकार करता हूँ--अपनाता हूँ। क्योंकि जब तक मैं स्वीकार नहीं करता तब तककिसी का भी आत्म-बल पूर्ण नहीं होता और जब तक आत्म-बल पूर्ण नहीं होता तब तक किसी को भी अत्यन्त सुख प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिये मेरे अपनाने के उपरान्त ही तुझे योग विज्ञान तथा सत्य पर आरूढ़ होने का सामर्थ्य प्राप्त होता है ।। ७ । ६॥
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